

अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में रिन्दों माझी, कोंधास की आवाज बने। 10 दिसंबर,1855 को कोंधोंस लोगो ने लेफ्टिनेंट के आवास पर हमला किया। कोंधोंस अपने हथियार जैसे तीर, बॉक्स, कुल्हाड़ी आदि के साथ उरलादानी में मैकनील की तरफ बड़े। लेकिन अंग्रेजों के पास बन्दूके और अत्याधिक सैनिक बल थे।
रिन्दों माझी (स्वतंत्रता सेनानी)
हर आदमी तब तक लड़ता है जब तक उसकी सांस चलती। यह संघर्ष व्यक्तिगत या सामाजिक हो सकता है। लेकिन बहुत कम लोगों का इतिहास ही समाज या राष्ट्र के सामने आ पाता है। रिन्दों माझी भी ऐसे ही क्रन्तिकारी है जिन्होंने अपने जीवन को समाज के लिए बलिदान कर दिया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में रिन्दों माझी एक लोकप्रिय या प्रसिद्ध नाम नहीं रहा। लेकिन वह कालाहांडी जिले, ओड़िसा के ग्रामीण कोयतूर इलाकों के एक महान व्यक्ति थे, जो कम घने जंगल में रहते थे। आजादी की लड़ाई में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फूलबानी जिले की सीमा के पास कालाहांडी क्षेत्र में स्थित उरलादानी में जन्मे रिंदो माझी अन्य कोयतूरो की तरह ही बचपन से अपनी आजादी के प्रति बहुत ही साहसी और जागरूक थे। वह अपनी स्वतंत्रता में दूसरों की स्वीकृति को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। वह कोंधोंस (जनजाति) की संस्कृति, रीति-रिवाजों और परंपराओं में बहुत ही कर्तव्यनिष्ठ व रूढ़िवादी थे।
कोंधोंस अक्सर प्रकृति के उपासक होते हैं। वे पैन्जिया (धरती) दाई को अपनी मां मानते हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि दुनिया में हर कोई पैन्जिया (गोंडी शब्द) दाई की दया पर रहता है। इसलिए वे पैन्जिया दाई के लिए बलिदान देने से भी कभी पीछे नहीं हटते हैं। हर साल सपत के लिए मारिया पर्व मनाते और इस परंपरा को जारी रखते हैं। जब अंग्रेजों ने इस पर्व को अंधविश्वास और असामाजिक व्यवस्था माना। उन्होंने मेजर जनरल कैंपबेल की कमान के तहत कालाहांडी और फूलबानी कोयतूर इलाकों में छापा मारा। लेकिन कोयतूर लोगों ने अपने रीति-रिवाजों और परंपराओं पर बहुत विश्वास किया और अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई।
दूसरी ओर, कोंधोंस(जनजाति) कालाहांडी राजा के सबसे करीब थे। इसलिए वे कर-मुक्त लोग थे। हालांकि, जब अंग्रेजों ने नागपुर पर कब्जा कर लिया, तो कालाहांडी उनके नियंत्रण में आ गया और उसने कालाहांडी राजाओं और जमींदारों की संस्था के अनुसार कोंधोंस से कर एकत्र किया। उधर कोंधास में आवाज़ उठने लगी और रिन्दों माझी आंदोलन के मुख्य व्यक्तित बन के उभरे।
वह अच्छी तरह से जानता था कि अंग्रेजों का बल अधिक है और उसके संख्या अधिक है लेकिन वह अंग्रेजो से लोहा लेने के लिए पीछे नहीं हटे। जिसे देखते हुए बाकि इलाको के सभी कोंधोंस भी उनकी बहुत मदद के लिए आगे आये। उन्ही में से एक प्रमुख मुखिया चक्र बिसोई कोंधोंस सामने आये और अपने लोगों के साथ बार-बार अंग्रेजों पर हमला किया। इन गतिविधियों से अंग्रेज परेशान हो गए और उन्होंने चक्र बिसोई की खोज शुरू कर दिए।
1853 में, लेफ्टिनेंट मैकनील ने रिन्दों माझी को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें बिना मुकदमा चलाये रसलकांडा जेल में बंद कर दिया गया। रिन्दों माझी की गिरफ्तारी से कोंधों(जनजाति) में क्रांति की आग और बिगड़ गई। ठीक दो साल बाद 1855 में, लेफ्टिनेंट ने लोहे की जंजीर से बंधे रिन्दों माझी को उनके साथ उनके गावं ले जाया गया ताकि कोंधोंस नेताओं के बीच डर पैदा हो। रिन्दों माझी को सबके सामने कोड़े बरसाये, फिर उन्हें वापस जेल में डाल दिया गया। लेकिन कोंधोंस अपने नेता रिन्दों माझी पर इस तरह के क्रूर और अमानवीय कृत्य को देखकर बर्दाश्त से बाहर हो गए।
10 दिसंबर,1855 को कोंधोंस लोगो ने लेफ्टिनेंट के आवास पर हमला बोला। कोंधोंस अपने हथियार जैसे तीर, बॉक्स, कुल्हाड़ी आदि के साथ उरलादानी(स्थान) में मैकनील की तरफ बड़े। लेकिन अंग्रेजों के पास बन्दूके और अत्याधिक सैनिक बल थे। लड़ाई भयानक हो गई, हालांकि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना बहुत मुश्किल था लेकिन कोंधोंस लोगो ने हार नहीं मानी। सैकड़ों लोग मारे गए। कंधमाल के तहसीलदार दीनाबंधु पटनायक ने किसी तरह लेफ्टिनेंट मैकनील की जान बचये और उन्हें उनके लोगों के साथ दूर ले गए। फिर अंग्रेजों ने इस लड़ाई का बदला लिया, उन्होंने रिन्दों माझी को फांसी दे दी और वे निश्चित रूप से स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के रिकॉर्ड में अज्ञात रहे। लेकिन वह एक ऐसा व्यक्ति है जिसने अपने जीवन को अपनी प्रजा, राष्ट्र और मिट्टी के लिए बलिदान कर दिया।