Mahishasur-durga-mysore
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महिषासुर शहादत दिवस

महिषासुर बंगाल के गोंडवाना क्षेत्र में सावाताल व संथाल जनजातियों का एक बहुत शक्तिशाली कोयतूर राजा था। जिसकी शासन मध्य भारत में था, वह अपनी रियासत का पशु-पक्षी व प्रकृति प्रेमी राजा था। राज्य में अच्छी व्यवस्था व हर चीज की सुख सुविधा थी, इसलिए उनकी प्रजा उनसे खुश थी। मैसूर शहर का नाम उनही के नाम पर रखा गया। यहाँ महिषासुर शहादत दिवस मानते है। महिषासुर को एक महान उदारवादी द्रविडियन शासक के रूप में भी देखा जाता है। यद्यपि हिन्दू मिथक उन्हें एक राक्षस के रूप में चित्रित करते हैं। इतने अच्छे और शानदार राजा को ब्राह्मणों ने खलनायक क्यों और कैसे बना दिया? इस संदर्भ में, सबल्टर्न कल्चर के लेखकन और शोधकर्ता योगेश मास्टर कहते हैं कि “इसे समझने के लिए आपको सुरों और असुरों की संस्कृतियों के बीच संघर्ष को समझना होगा।”

महिषा राज्य में असुरों की बड़ी संख्या में भैंसें थीं। मैसूर में चामूंडी मंदिर के पास एक महिषासुर की मूर्ति स्थापित है, जिसके सामने महिषासुर शहादत दिवस मनाया जाता है। कन्नड़ लेखक और इतिहासकार विजय महेश का कहना है कि महिषासुर शब्द में गोंडी भाषा का शब्द है जिसमे ‘माही’ शब्द का अर्थ ‘एक ऐसा व्यक्ति होता है जो दुनिया में शांति कायम करे’ है। अधिकांश कोयतूरो राजाओं की तरह, महिषासुर एक विद्वान और शक्तिशाली राजा था, बल्कि उसके पास 177 बुद्धिमान सलाहकार थे। उनका राज्य प्राकृतिक संसाधनों से भरा हुआ था। कोई भी इनके राज्य में जानवरों को अंधाधुंध नहीं मार सकता था और उनके भोजन, आनंद या धार्मिक अनुष्ठानों में उपयोग नहीं कर सकता था।  बिना इजाजद के पेड़ों को काट सकता था। इससे रोकने के लिए उन्होंने कई लोगों को लगा रखा था। सबसे महत्वपूर्ण बात, किसी को भी निकम्मे की तरह जीवन यापन करने की अनुमति नहीं थी।

विजय_(इतिहासकार) दावा करते हैं कि महिषासुर शासन काल में लोग धातु की ढलाई की तकनीक के विशेषज्ञ थे, इसी तरह की राय एक अन्य इतिहासकार _एम.एल. शेंदज प्रकट करती हैं । इतिहासकार विंसेन्टए_स्मिथ अपने इतिहास ग्रंथ में कहते हैं कि भारत में ताम्र-युग और प्राग ऐतिहासिक कांस्य युग में औजारों का प्रयोग होता था । इनके शासन काल में पूरे देश के लोग यहाँ हथियार खरीदने आते थे। ये हथियार बहुत उच्च गुणवत्ता की धातुओं से बने होते थे। लोककथाओं के अनुसार महिषासुर विभिन्न वनस्पतियों और पेड़-पौधो के औषधि गुणों को जानते थे और वे व्यक्तिगत तौर पर इसका इस्तेमाल करते थे और अपने लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी इसका उपयोग करते थे। आर्य ब्राह्मण यूरेशिया (यूरोप और एशिया का मध्य भाग) से आये हुए थे । वह छोटी-छोटी (कबिलास्वरूप ) टुकुड़ियों में भारत आए । आर्य ब्राह्मण ने भारत देश के धन-दौलत, हरियाली खुशाहाली के बारे में सुना था । उनके मन में लोभ आ गया और हमेशा के लिए यही बसने की नीति बनाने लगे । ब्राह्मण विदेशी इनके राज्य पर कब्जा करने के लिए आक्रमण कर दिए । सुर-असुर के बीच कई बार युद्ध हुआ । लेकिन ब्राह्मणों को हमेशा हार का ही मुँह देखना पड़ा ।  

कई कर हरने के बाद यहाँ शासन करने के लिए दूसरा तरीकों पर विचार करने लगे अतः कुछ आर्य ब्राह्मण यहाँ की रीति-नीति समझने के लिए राजा महिषासुर के राज्य क्षेत्र में आकर बस गए। कुछ दिन पश्चात् ब्राह्मण रोजाना वृक्ष की कटाई कर के हवन आदि के कर्म करते और जंगली-जानवरों की बलि देने लगे । जिससे साफ सुतरे वातावरण में धुआं व प्रदूषित होने लगा । जब इस बात की जानकारी राजा महिषासुर को होती है तो राजा महिषासुर आर्य ब्राह्मण के कबीले में पहुंचकर उन्हें उनको वहां से चले जाने की चेतावनी दे देते हैं। आर्य ब्राह्मण राजा के समक्ष हाथ जोड़ के अगली व्यवस्था होने तक कुछ दिनों की रुकने की मोहलत मांगी, राजा महिषासुर उन्हें कुछ दिनों के लिए वहां रुकने की मोहलत देकर अपने आवास पर वापस चले जाते हैं । राजा महिषासुर कठोर के साथ-साथ दयालु भी थे ।

आर्य ब्राह्मण जान गए थे की यहाँ के लोग बलसाली और भोले-भाले है । वे यहां के भोले-भाले लोगों को बेवकूफ बनाकर उनको छलते रहने की योजना बनाने लगे । महिषासुर के विरुद्ध भयंकर षड्यंत्र की रचना कर डाली और योजनाबद्ध तरीके से काम करना शुरू कर दिया । उन्होंने सुरा व सुंदरी के माध्यम से जितने की योजना बनाई । योजना अनुसार आर्य ब्राह्मण ने पश्चिमी बंगाल कोलकाता के सोनागाछी एरिया से एक सुंदर ब्राह्मण वेश्या का चयन किया, उस कुंवारी कन्या का नाम था दुर्गा । षड़यंत्र के तहत, महिषासुर को अपने मायाजाल में फाँसकर हत्या करने के लिए भेजा । किसी प्रकार से दुर्गा को महिषासुर के राज महल में प्रवेश करा दिया गया और दुर्गा महिषासुर की मुलाकात हो जाती है और दुर्गा महिषासुर के आगे अपने प्रेम का प्रस्ताव रख देती है । लेकिन महिषासुर इसके लिए तैयार नहीं थे वह स्त्री जाति का सम्मान करना भली-भांति जानते थे ।

लेकिन दुर्गा भी कोई कम खिलाड़ी नहीं थी । आखिरकार वेश्यालय से जो आई थी अपने सारे अनुभव का प्रयोग दुर्गा ने महिषासुर के ऊपर किये । आखिर महिषासुर भी कब तक एक सुंदर रूपवती कन्या के सामने अपने आप पर संयम रखते । विश्वामित्र जैसे ऋषि मुनि भी अप्सराओं के समक्ष अपना संयम खो बैठे थे । किसी ने सही कहा है सुंदर महिला पुरुषत्व के लिए कमजोरी होती है ।

दुर्गा हर रोज नए-नए श्रंगार करके महिषासुर को खूब रिझायी और 8 रात तक रोज सुरा पिलाते हुए, कई नृत्य नाटक करते हुए महिषासुर के साथ बिताई । अंतिम रात्रि नौवें दिन दुर्गा के रूप का जादू महिषासुर पर चल गया और महिषासुर मदहोशी की अवस्था में आ गए । इसी मौके का फायदा दुर्गा ने उठाया और अपने साथ लायी गोपनीय धारदार कटार से महिषासुर के शरीर में शीघ्रता कई बार वार कर डाली और राजा महिषासुर का अंत कर दिया । इसके पश्चात बाहर छिपे अपने साथियों को इशारा कर दिया । इशारा पाकर बाहर छिपे सारे लोग महिषासुर के किले में प्रवेश कर गए और अपनी विजय पताका फहरा दिए ।

अब देखिए विदेश से आए आर्य यही संतुष्ट नहीं हुए उन्होंने आपस में बैठकर ( दुर्गा से अलग होकर) एक गोपनीय मीटिंग की और विचार मंथन किया कि जो ब्राह्मण लड़की महिषासुर के साथ नवरात्रि गुजार चुकी हो वह आने वाले समय में हमारी कौम की बदनामी का कारण बनेगी यही सोच कर ब्राह्मण ने दुर्गा की भी हत्या कर दी और उसकी लाश को नदी में बहा दिया गया ।

आर्य ब्राह्मण ने इस घटना को छिपाने के लिए कैसा-कैसा रूप दिये :-

1. जो 9 दिनों तक दुर्गा महिषासुर के साथ रही उसे नवरात्र कहा गया ।

2. नवरात्रों के व्रत में अन्न नहीं खाया जाता है, महिषासुर के किले के बाहर छिपे लोगों ने वहां जंगली फलों का आहार किया था क्योंकि वहां पर भोजन की कोई व्यवस्था होने का तो सवाल ही  नहीं था इस क्रिया को व्रतों में फलाहार का रूप दिया गया मतलब कि अन्न नहीं खाते। वहां भूखे पेट मरने से बचने के लिए जो जंगली फलों को खाया उसे आज फलाहार कहा गया । आज भी उसी के रूप में फलों को खाते हैं ।

3. मृत्यु उपरांत दुर्गा के शव को किसी नदी में बहाने को दुर्गा मूर्ति विसर्जन का रूप दिया गया ।

इस तरह से नवरात्रों की स्थापना हुई ।

दुर्गा के आठ हाथ नहीं बल्कि दो हाथ थे। दुर्गा का जन्म कलकत्ता वैश्यालय में हुआ था। दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए, बंगाल में वैश्या के घर से मिट्टी लाना आवश्यक होता है। वैश्या के घर की मिट्टी के बिना दुर्गा की मूर्ति को पूजाने योग्य नहीं माना जाता है। आज भी, जब कोई कारीगर दुर्गा की मूर्ति का निर्माण करता है, तो उसे कुछ मिट्टी को वैश्यालय के आंगन से ला कर मिलाता है, अन्यथा मूर्ति को अधूरा माना जाता है, यही वजह है कि वेश्याएं दुर्गा को अपना गुरु मानती हैं।

इस प्रकार, ब्राह्मणों ने महिषासुर की हत्यारी दुर्गा की पूजा उन्ही के वन्सजो से करवा दी। कई लोग इतने अंध भक्त होते हैं कि इसे अपने बाप दादाओं की परंपरा मानकर आज भी पूजा कर रहे है। उस समय पढ़ने और लिखने का अधिकार उनके बाप दादाओं नहीं था, इसलिए उन्होंने ब्राह्मणों ने जो बताया गया था उसका पालन कर रहे रखा।

पहली बार 23 जून 1757 ईस्वी में दुर्गा पूजा की बंगाली विस्तार का एक घृणित इतिहास है, 18 वीं सदी से पहले ऐसी कोई दुर्गा पूजा की परंपरा नहीं थी ।

दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो दुर्गा पूजा त्यौहार (त्यौ+हार यानि तुम्हारी हार) मनाया जाता है वह हमारे महापुरुषों की हत्या पर मनाया गया एक जश्न है ।

नोट:- पोस्ट लिखने का मकसद किसी की भावना को आहत करना नहीं सिर्फ जानकारी देने के लिए की गई है ।


रावण मंडावी का भारत में प्रमुख्य स्थान

दशहरा

1 COMMENT

  1. Tm log vastav me ho to Kutto ki aulad. Saale kuchh bhi mangadant likhte ho. Hiduo ko batne walo ki baato me aker tm logo ne hidu dharm ko hi badnam karna shuru or Diya. Baato me ana bnd Karo aur padayi likhayi Kiya karo. Smjhe..

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