

-11अप्रैल खाज्या नायक बलिदान दिवस-
खाज्या नायक अंग्रेजों की भील गोंड पल्टन में एक सामान्य सिपाही थे । उन्हें सेंधवा-जामली चैकी से सिरपुर चैक तक के 24 मील लम्बे मार्ग की निगरानी का काम सौंपा गया था । खाज्या ने 1831 से 1851 तक इस काम को पूर्ण निष्ठा से किया। एक बार गश्त के दौरान उसने एक व्यक्ति को यात्रियों को लूटते देखा।
इससे वह इतना भड़क गए और उनपर बिना सोचे-समझे टूट पड़े। इस अपराधी की मौके पर ही मौत हो गई। शासन ने कानून को अपने हाथों में लेने के लिए दस साल की सजा सुनाई।
क्योंकि वो जेल में अनुशासित रहे, इसलिए उनकी सजा को घटाकर पांच साल कर दिया गया। जेल से रिहा होकर, वह सरकारी काम की मांग के लिए लौटे; लेकिन उन्होंने सरकारी नौकरी नहीं दी गयी। इससे वह शासन नाराज हो गये और उनसे बदला लेने के लिए सही समय की तलाश करने लगा।
इतिहासकार डॉ०एस०एन०यादव के अनुसार, जब भारत में अंग्रेजों के खिलाफ 1857 ई० में विद्रोह शुरू हुआ, तो ब्रिटिश अधिकारियों ने कई पूर्व सैनिकों और खाज्या को फिर से काम पर वापिस बुलाया; लेकिन खाज्या के मन में ब्रिटिश सरकार के लिए नफरत का बीज पहले ही अंकुरित हो चुका था।
वह शान्त भाव से फिर काम करने लगे; लेकिन अब उनका मन काम में नहीं लगता था । एक बार एक छोटी सी भूल पर अंग्रेज अधिकारी कैप्टेन बर्च ने उन्हें अपमानित किया । उनके रूप, रंग और जातीय अस्मिता पर बहुत खराब टिप्पणियाँ कीं । अब खाज्या से और सहन नहीं हुआ । उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया ।
बदले की भावना उनके मन में इतनी प्रबल थी कि वह बड़वानी क्षेत्र (मध्य प्रदेश) के क्रांतिकारी नेता भीम गोंड नायक से मिले, जो रिश्ते में उनके बहनोई लगते थे। यहीं से इन दोनों की जोड़ी बनी, जिसने भील गोंडो की एक सेना बनाई और निमाड़ क्षेत्र में अंग्रेजों के खिलाफ माहौल बनाया।
भील गोंड समुदाय शिक्षा और आर्थिक रूप से बहुत पीछे थे; लेकिन उनका अभिमान, उनका साहस और उनका अभिमान कूट-कूटकर भरा था। एक बार जब उन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया, तो पीछे हटने की कोई संभावना नहीं थी।
इस सेना ने ब्रिटिश खजाने को लूट लिया, उन्हें मार डाला और उनके पिट्ठुओं को भी नहीं छोड़ा। सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए कई प्रयास किए; लेकिन जंगल और घाटियों के गहरे ज्ञान के कारण, बहादुर भील गोंड योद्धा हमेशा बच जाते।
अब सरकार ने नीति का सहारा लिया और एक हजार रुपये पुरस्कार की घोषित की लिए, जिसने इन दोनों भील गोंड नायकों को पकडवाने में सहायता की । तब के एक हजार आज के दस लाख रुपये के बराबर होगा। हालांकि भीमा और खाज्या नायक ने बिना किसी डर के क्षेत्र में लोगों को संगठित करना जारी रखा।
11 अप्रैल, 1858 को ब्रिटिश सेना और भील गोंड सेना के बीच मुठभेड़ बड़वानी और सिलावद के बीच स्थित आमल्यापानी के गांव में हुआ। ब्रिटिश सेना के पास आधुनिक हथियार थे, जबकि भील गोंड ने अपने पारंपरिक हथियारों के साथ युद्ध किया। यह युद्ध सुबह आठ से दोपहर तीन बजे तक हुआ। ख्याला नायक के वीर पुत्र दौलत सिंह सहित कई योद्धा बलिदान हुए।
आज भी, पूरे निमाड़ क्षेत्र उन नायकों के प्रति श्रद्धा हैं, जिन्होंने अपने राष्ट्रीय के गौरव के लिए अपनी जान दे दी।
खाज्या नायक
इस क्रांतिकारी को दिल से सलाम ,जय आदिवासी
Khajya Nike Bhil jati ka gouraw hain jayadiwasi