कन्ह्वारा (मदनपुरा) मुड़वारा, जनपद पंचायत कटनी, जिला – कटनी (मध्य प्रदेश)
(संक्षिप्त जानकारी है, पूरी जानकारी धरोहर दर्शन में दी जा रही है )
कन्ह्वारा, मुड़वारा से लगभग 15 कि.मी.दूर विजयराघवगढ़ सड़क पर भैंसवाही के पास कन्ह्वारा नामक गाँव है | कन्ह्वारा गोंडी भाषा के कन शब्द से बना है | गोंडी के कन का हिंदी में अर्थ आँख और कन्ह का अर्थ आंसू होता है |


मुड़वारा, बिजौरी और कन्ह्वारा की पहाडी में लोहे की धाऊ थी | लौह अयस्क को गलाकर लौह बनाया जाता था | फिर उपकरण तैयार किये जाते थे | राजधानी गढ़ा में वहां से औजार बनकर आते थे |
लौह अयस्क की उपलब्धता को देखते हुए गढ़ा के महाराजा मदनसिंह ने वहां अपने नाम से मदनपुर नगर बसाकर एक किल्ले का निर्माण करवाया था | किला बहुत बड़ा और सामरिक महत्त्व का था | किल्ले का प्राचीर लगभग 6 वर्ग किलोमीटर का था | उसके अन्दर आज के गाँव मदनपुरा (वीरान), कन्ह्वारा, दिठवारा और खमतरा आबाद थे |
वतर्मान में जिस जगह पर कन्ह्वारा गाँव बसा है वहां कभी मदनपुर किले के प्राचीर का उत्तरी दरवाजा था | उत्तर की ओर से आने वाले शत्रुओं की देख-रेख यहीं से की जाती थी अर्थात् कन्ह्वारा, मदनपुर गढ़ी के लिए आँख का काम करता था |


गोंडकाल के अवसान के बाद शासक बदले किन्तु कन्हवारा (मदनपुर) का गढ़ भैंसवाही के ठाकुरों के अधिकार में था | भैंसवाही के ठा.कमोदसिंह ने मदनपुर के किले का जीर्णोद्धार करवाया था |1
वर्तमान में यह गढ़ी कन्ह्वारा की गढ़ी कहलाती है | गढ़ी आयताकार है उसके चारों कोनों पर बुर्ज हैं | प्रवेश द्वार पर ऊपर मंदिरनुमा दो छतरियाँ हैं | उनके नीचे दोनों ओर सोलह-सोलह फलकों वाले दो पाषाण पुष्प जड़े गए हैं | गढ़ी प्रांगण में एक चबूतरे पर नीम के पेड़ के नीचे तीन प्रतिमाएं हैं जिनमें दो गोंड साम्राज्य का राजचिन्ह(गजशार्दूल) की हैं | एक अन्य खंडित प्रतिमा है |
अन्दर विशाल आँगन है जिसमें प्राचीन कूप और देवालय हैं | गढ़ी के अन्दर राजकक्ष, रनिवास, दरबार कक्ष और मंत्रियों के आवास हैं |
यहाँ एक प्रतिमा रानी दुर्गावती की है जिसमें रानी हाथी पर सवार है | उनके साथ एक और व्यक्ति दूसरे हाथी पर है | हाथियों पर दो शेर आक्रमण किये है | रानी का हाथी शेरों से भिड़ गया है जबकि दूसरा हाथी डरकर पीछे मुड़ गया है |
शेर का शिकार करती ऐसी ही एक प्रतिमा मधुपुरी मंडला में है | उसमें रानी हाथी से उतरकर आक्रमण करते शेरों को तलवार से वार करती है |


कन्हवारा की गढ़ी में एक और वीणाधारी प्रतिमा है | सफ़ेद संगमरमर का एक प्राचीन शिवलिंग है | लगभग दो मीटर व्यास वाले वेलनाकार दो पत्थर गड़े है इनकी लम्बाई चार-चार फुट होगी |
गढ़ी का सामने का हिस्सा दुरुस्त है | पिछला(दक्षिणी) हिस्सा 1857 के युद्ध में टूट गया था, आज भी टूटा हुआ है | 30 अक्टूबर 1857 को कम्पनी सेना के कैप्टन ऊले विजयराघव गढ़ के दमन के लिए चला था | क्षेत्र के गोंड सरदार कन्ह्वारा के किले में घात लगाये बैठे थे | किसी भेदिए ने इसकी सूचना कैप्टन ऊले को दे दी थी | कैप्टन ऊले ने किले को घेर लिया था | किले के उत्तर की ओर बड़ी खाई थी अतः उसने दक्षिण की ओर से आक्रमण किया था | जबरदस्त लड़ाई हुई थी इसी युद्ध में पिछली दीवाल और पिछले दोनों बुर्ज टूट गए थे |
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में कन्हवारा की गढ़ी लड़ने वाले वीरों का अतुलनीय योगदान रहा था | ये योद्धा लाल छत्तरसिंह, दीवान दलगुंजनसिंह, मुकुंदसिंह, बुद्धूसिंह, खलवारा के थानेदार रामप्रसाद, कनौजा भटगांव के राजा महीपालसिंह, भंडरा के राजा अमानसिंह, नीमखेडा के ठा.हिम्मतसिंह और ठा.भावसिंह, मुड़वारा के जमीदार ठाकुर रामबख्श आदि प्रमुख थे |
उपरोक्त क्रांतिकारियों के पदचिन्हों पर चलते हुए कन्हवारा के बीस वीर सपूतों ने जंगल सत्याग्रह में बढ़चढ़ कर भाग लिया था | इनमें सर्वश्री मूलचंद बुद्धा नामदेव(1930),रामकरन (बिन्देलाल)काछी(1930),रमोला कमोदा ढ़ीमर(1930), रामरतन दादूराम स्वर्णकार(1930), नंदीलाल रामचरण (1930), समई अंगद काछी (1930),सेवाराम लुकई अहीर(1930),हुलासीराम हल्केराम ढ़ीमर (1930), गोकुल प्रसाद दयाराम काछी (1930), शंभूप्रसाद गारीराम काछी(1930), दरबारीलाल कालूराम काछी (1930), दरबारीलाल पलीतेराम काछी (1930), तुलसीराम ढ़ीमर (1930), बुद्धूराम भैयालाल काछी (1930),मैकूलाल लाहुर (1930), मंहगूलाल मुंडेलाल कछवाहा (1930), भोंदूराम पदईराम अहीर (1930),मूलचंद पैरन बढ़ई (1930),सरमन गड़ारी (1932), जहानी राम बालकिसन (1941) थे |2
मदनपुर अब वीरान है किन्तु भैंसवाही और कन्हवारा गाँव में गोंड राजाओं के बनवाये इमारतों के खण्डहर बिखरे पड़े हैं | कन्हवारा के कुछ शौकीन लोगों ने गुदावली पत्थरों को अपने घरों में जड़ लिए हैं | कन्ह्वारा में शिवरात्रि को मेला भरता है | भैंसवाही में भी उसी समय गोंडों के पेनठाना में गोंगो किया जाता है |
मैंने 18/04/2022 को विजयराघवगढ़, कन्हवारा, भैंसवाही का भ्रमण किया था | मेरे साथ तिरुमाल ध्यानसिंह जी टेकाम (स्टेशन अधीक्षक रेलवे, सिहोरा) भी थे |
सन्दर्भ- 1. अलभ्य ग्रंथमाला- डॉ.हीरालाल एक संकलन प्रकाशक-इन्टैक जबलपुर पृष्ठ 72 |
2.जंग-ए-आजादी में जबलपुर – डॉ.प्रतापभानु राय पृष्ठ 181