

कोयतूर जननायक झाड़ा सिरहा का जन्म पुस माह (जनवरी) में मांझी और माटी पुजारी के परिवार में आगरवारा परगना के बड़े आरापुर में हुआ था। कई गांवों को मिलाकर एक परगना बनता है, जिसका मुखिया गोंड(मांझी) होता है।
कोयतूर समुदाय में गांव की जिम्मेदारी किसी न किसी पर होती है, गांव के लोग अपने बीच में से किसी न किसी को चयन कर यह जिम्मेदारी देते है, जिसे ‘सिरहा’ कहा जाता है। ‘झाड़ा सिरहा’ को युवा आवस्था में पेन सवार होता था, तभी से ‘झाड़ा’ को सिरहा के नाम से जाना जाने लगा।
बाद में, उनकी प्रसिद्धि उनके आसपास के परगनों के साथ कई शहरों में फैलने लगा। ‘झाड़ा सिरहा’ जड़ी-बूटियों के बारे में पारंपरिक ज्ञान रखते थे, जिससे वे लोगों को ठीक करते थे। ‘झाड़ा सिरहा’ के पिता आगरा के मांझी थे, वे परगनों में विवादों को उचित न्याय और उचित सलाह के साथ निपटारा करते थे। तो ‘झाड़ा सिरहा’ अपने पिता के निर्णय, सलाह को देखते सुनते रहते थे। धीरे-धीरे ‘झाड़ा सिरहा’ में भी सलाह और निर्णय लेने की छमता विकसित होने लगी जिसे देख परगना के लोग प्रभावित होने लगे।
दूसरी ओर उनके पिता आगरवारा परगना के मांझी और बड़े आरापुर गांव के पुजारी थे। उनकी मृत्यु के बाद, परंपरा के अनुसार, ग्रामीण और परगना के गोंड मांझी, गोंड मुखिया, गोंड सिरहा और गोंड सियान सज्जन की उपस्थिति में ‘झाड़ा सिरहा’ को पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ लाल पगड़ी पहनाया गया, उन्हें माटी पुजारी और परगना मांझी का पद सौंपा गया था। ‘झाड़ा सिरहा’ को बस्तर रियासत में सभी परगनाओ के लोग जानते थे।
विद्रोह के कारण
ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए विभिन्न भू-राजस्व प्रयोगों के कारण कोयतूरों में एक बड़ी हलचल मच गई थी, जिसने पूरे क्षेत्र को संप्रदाय में फंसा लिया था। कलम की जोर पर ब्रिटिश ने बस्तर के जमींनदार और ब्रिटिश समर्थित लोगो को जल जंगल जमीन का मालिक बना दिया और अधिक कर वसूलने को कहा। जिससे दंगे भड़क उठे और शासक की नीतियों के विरोध में लोग एक जगह एकत्रित हो गए और अपना विरोध व्यक्त करने लगे, अंग्रेजों की नीति को कोयतूर समुदाय की एकता पर हमले के रूप में देखा जाने लगा।
इस प्रकार संपूर्ण आय प्रणाली की संरचना चरमराने लगी। ब्रिटिश सरकार ने आगे चलकर गाँव के विकास के लिए कोई कदम नहीं उठाए। मुरिया जनजाति अपने प्राचीन संस्कृति को भूल विकास के चक्कर में पड़ गई। समाज की पारंपरिक संरचना जो कृषि और शिल्प पर आधारित थी उसे छोड़ उद्योगी कारण की ओर मुड़ गए। ब्रिटिश सरकार द्वारा दिए आय के आभाव में उद्योगी बंद हो गए परिणामस्वरूप न केवल शिल्प उद्योग का पतन हुआ बल्कि हजारों कोयतूर बेरोजगार हो गए। इन कारणों से कबीलों के राजा ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।
राजा भैरमदेव के निजी जीवन में ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप भी मुरियाओ की संवेदनाओं को झकझोर ने वाला था। 1875 में, ब्रिटिश सरकार ने सभी राजाओ को दिल्ली दरबार में प्रिंस ऑफ वेल्स से सम्मानित करने का आदेश दिया। कार्यक्रम की रूप रेखा में यह तय किया गया कि राजाओ को सिरोचा होते हुए दिल्ली दरबार में लाया जाएगा। बस्तर जनजाति को ब्रिटिश सरकार के व्यवहार पर संदेह हुआ और उन्होंने राजाओ को दिल्ली न जाने के लिए कहा। राजा ने अपनी बेबसी व्यक्त की और इससे कबीलों के मन में यह भ्रम पैदा हो गया कि राजा कभी दिल्ली से नहीं लौटेगा। कबीलाई लोगो ने विद्रोह कर दिया। इस इलाके को ‘गोपीनाथ कपड दार’ देखते थे। कबीले सोचते थे कि राजा की अनुपस्थिति में गोपीनाथ उनका शोषण करेंगे, जिससे पूरे क्षेत्र में विरोध भड़क उठा।
मुरिया जनजाति ने गोपीनाथ का विरोध किया। साथ ही वह नौकरशाही व्यवस्था से भी नाराज थे, तब गोपीनाथ बस्तर के दीवान बने, तब वे स्वीकृत परंपराओं के खिलाफ थे क्योंकि उस समय दीवान को गाँव के लोगों द्वारा गाँव के बीच के व्यक्ति को चुना जाता था। गोपीनाथ रावत जाति के थे, वे बस्तर शासन वर्ग के प्रधानमंत्री बने। गोपीनाथ इतने शक्तिशाली हो गए थे कि राजा भैरमदेव उनके हाथ की कठपुतली बनकर रह गए थे। गोपीनाथ ने ठेकेदारी प्रथा शुरू किया बस्तर में तो फैलने लगा असंतोष।
मुरिया विद्रोह 1876
‘मुरिया विद्रोह’ निश्चित ही पहला क्रांति था ऐसा संदर्भ मिलता है। अंग्रेजो के मुंशियो ने लोगो का शोषक करना शुरू कर दिया। गोपीनाथ ने कई मुंशियो को नियुक्ति किया जो उर्दू जानते थे। मुंशी कोयतूर का आर्थिक शोषण करने लगे। मुंशियो द्वारा गोंड़ी बोलियों का सम्मान न करने के कारण कोयतूर युवाओं ने हथियार उठा लिए।
मुरिया विद्रोह का एक अन्य कारण ठेकेदारों का जबरन श्रम और मांझी के अधिकारों में कमी जिससे कोयतूर व्यवस्था बिखर गई और जो कोयतूर गुलाम बनकर रह गए, उन्होंने खुद को शोषण से बचाने के लिए अपनी कमर कस ली।
मुरिया विद्रोह के कारण कुछ नए तथ्य प्रकाशित हुए। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि विद्रोह को महल का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। भैरमदेव की मुख्य रानी और राजा भाई लाल कालिंद सिंह ने परोक्ष रूप से जनजातियों की मदद करना जारी रखा।
कोयतूर जननायक झाड़ा सिरहा
1853 में अंग्रेजों ने बस्तर पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों का उद्देश्य कोयतूर समुदाय को खत्म कर उन्हें गुलाम बनाए रखना था। जनजातियों ने बस्तर में ब्रिटिश जमींनदारों और शासकों द्वारा जल, जंगल और जमीन के साथ-साथ लोगो पर शोषण और अत्याचारों को होते देखा। इसलिए उन्होंने शोषण और अत्याचार के खिलाफ विद्रोह करने का फैसला किया। क्रांतिकारियों ने अगरवारा परगना के बड़ा आरापुर सभा स्थल पर एक गुप्त बैठक की। बैठक में राज्य के सभी गावं के लोगों ने भाग लिया।
इस बैठक में अगरवारा परगना के बडेआरापुर गांव के एक युवक ‘झाड़ा सिरहा’ को मांझी, सिरहा, गुनिया ने अपना नेता चुना गया। ‘झाड़ा सिरहा’ पेन की चमत्कारी शक्तियों वाला एक योद्धा था। ‘झाड़ा सिरहा’ ने विद्रोह को सफल बनाने के लिए (डोडामाल) आम के पेड़ की डालियाँ, लाल मिर्च और हजारी के फूल को गाँव-गाँव तक पहुचाए, ताकि सभी लोग शोषण और अत्याचार के खिलाफ एकजुट हो सकें। इस बैठक में लगभग 3,000 हजार कोयतूरो ने भाग लिया।
अंग्रेजों को सूचना मिलने पर कोयतूर क्रांतिकारियों को दबाने के लिए बस्तर महाराजा भैरवदेव के नेतृत्व में सैनिकों को भेजा। कोयतूर क्रांतिकारियों ने महाराजा को ब्रिटिश दीवानों और जमींनदारों द्वारा किए जा रहे शोषण अत्याचारों की जानकारी थी। बड़े आरापुर गांव में सैनिकों और क्रांतिकारियों के बीच युद्ध हुआ। जिसमें छह क्रांतिकारी शहीद हुए थे, यह घटना 1874-75 में घटी थी। जगदलपुर राजमहल में रात आठ बजे के करीब सभी परगना से ‘झाड़ा सिरहा’ के नेतृत्व में 3000 जनजातियां एकत्रित हुईं, तब उनकी संख्या 20,000 से अधिक थी।
जगदलपुर में, ‘झाड़ा सिरहा’ के नेत्रित्व में कोयतूर क्रांतिकारियों ने 6 महीने तक महल को घेर लिया, डर के मारे राजा ने महल की रक्षा के लिए 500 से अधिक सैनिक की तैनाती की। कोयतूर कार्यकर्ताओं पर दबाव बनाने के लिए जयपुर, रायपुर, बिंगपट्टनम, सिरोंचा से 5000 से अधिक सैनिक आए। लेकिन चमत्कारी शक्तियों के बदोलत सैनिकों की जमकर धुनाई हुई। रैली में कोयतूरो ने आवाज उठाई।
सिरहासार कंस्ट्रक्शन
‘झाड़ा सिरहा’ ने कार्तिकारीयों के रहने के लिए राजमहल के पास एक झोपड़ी बनाई। जिसमें वह सभी परगनाओ की समस्याओं, झाड़ियों, खुशियों, पीड़ाओं, सामाजिक क्रियाओं की समीक्षा करते थे। इस पवित्र स्थान को सिरहा कहा जाने लगा, अर्थात “सिरहा चो सार” या “सिरहा चो खोली”, जहाँ रथ बनाने वाले रहते हैं। इस ऐतिहासिक परंपरा को ध्यान में रखते हुए, सिरहासर भवन को ‘झाड़ा सिरहा’ स्मृति सिरहासर भवन के रूप में नामित किया गया है।
क्रांति के प्रतीक के रूप में स्वीकार की गई लाल पगड़ी
क्रान्ति को गति प्रदान करने के लिए 2 मार्च 1876 को इस ऐतिहासिक कार्यक्रम का आयोजन करने वाले ‘झाड़ा सिरहा’ की अध्यक्षता में हुई गुप्त बैठक ने इस बैठक में भविष्य की रणनीति तैयार की। क्रांतिकारी संघर्ष के इतिहास में इसे लाल दिवस के नाम से जाना जाता है, लाल पगड़ी इसका प्रतीक थी। आज भी बस्तर दशहरा पर्व पर महाराजा मल गुजर, जमींनदार, नायक पाइक, मांझी, मुखिया, मेमरिन को लाल पगड़ी से सम्मानित करते हैं।
मुरिया दरबार का उद्घाटन
ब्रिटिश सरकार ने इस विद्रोह का जिम्मेदार राजा और उसके छोटे नौकरों तक बड़ा आरापुर गांव को ठहराया। ब्रिटिश उपायुक्त मेक जॉर्ज को इसके समाधान के लिए बस्तर भेजा। ‘झाड़ा सिरहा’ ने महल में बैठक करने से इनकार कर दिया। ‘झाड़ा सिरहा’ ने उपायुक्त को अपने केबिन में बैठक करने की सहमति दी। 8 मार्च, 1876 ई. को उन्होंने जगदलपुर में प्रथम दरबार का आयोजन किया।
अंतिम समय में, ब्रिटिश उपायुक्त मेक जॉर्ज ने राजा, उनके अधिकारियों और कोयतूरो क्रांतिकारियों को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि उन्होंने कोयतूरों को समझाया कि भविष्य में भी किसी तरह की शिकायत हो तो कानून हाथ में न लें, शिकायत दर्ज कराएं। स्थिति ने राजा और क्रांतिकारियों के कबीलों को समेट लिया। राजा ने जनजातियों द्वारा की गई शिकायतों को दूर करने के लिए कहा। राजा ने कहा कि आज से मैं मुरिया कोयतूर समुदाय से समान रूप से बात कर सकता हूं। राजा ने कहा कि आज से मैं मुरिया को राजा का दर्जा दूंगा। ऐसी बातें सुनकर सभी मुरिया प्रसन्न हो गए। इस प्रकार जगदलपुर के आसपास के मुरिया को ‘राजा मुरिया’ कहा जाता है। बाद में राजा ने कहा कि अब से इस दरबार को मुरिया दरबार कहा जाएगा। इस प्रकार 1876 से आज भी बस्तर के सिरहा सर भवन में मुरिया दरबार का आयोजन किया जाता है।
अंग्रेजी सेना का आगमन
रिपोर्ट के मुताबिक, सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर और जयपुर के असिस्टेंट एजेंट ने राजा की अपील पर सेना भेजी। मई 1876 तक, 5000 सरकारी सैनिक, कई सौ पुलिसकर्मियों के साथ, पड़ोसी राज्य से आ चुके थे और सिरोंचा सेना की तीन पर्याप्त रेजिमेंटों को भेजा गया था। सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर मैक जॉर्ज ने सेना का नेतृत्व किया। जब रायपुर सिरोंचा जयपुर से पर्याप्त सेना आती तो विद्रोहियों के पास गोरिल्ला और बर्बर युद्ध के अलावा कोई चारा नहीं होता, वे 2 से 4 हजार के बीच के समूह बना लेते। अंग्रेज कैसे पहुंचे। विद्रोह जंगल में भागने लगा और ढोल पीटने लगा ताकि अधिक से अधिक लोग इकट्ठा हो सकें। सेना में चट्टानों के पीछे फंसे तीरों को अंग्रेज मारते थे। लेकिन वे ब्रिटिश सेना को रोक नहीं पाए, इसलिए राजधानी के कब्जे ने विद्रोह को समाप्त कर दिया और विद्रोह को कुचल दिया गया। जगदलपुर के प्रभाव के कारण विद्रोहियों ने मुरिया के कोयतूर शहर को छोड़ दिया। ‘झाड़ा सिरहा’ को ब्रिटिश सेना ने इंदावती नदी पर अंग्रेजों ने मार डाला था।
पूरन सिंह कश्यप
सचिव
जिला-बस्तर छत्तीसगढ़ आदिवासी युवा छात्र संगठन