

आज हम लोग बाहरी आडम्बर को देखकर उनकी नकल करके दिवाली में अपना दिवाला निकाल रहे है… ऐसे आडम्बरों से समाज को बचाना होगा..!
गोंडवाना सांसकृतिक विजव महोत्सव ईशर(शम्भू) राजा और गौरा रानी मडमिंग(शादी)। इसे गौरा-गोरी विवाह कहना गलत होगा क्योकि गौरा(स्त्री) और गौरी(स्त्री) है अतः स्त्री-स्त्री का विवाह नहीं होता ।
हमारे पूर्वज लोग विवाह करने से पहले विवाह के नेग दस्तूर सामूहिक रूप से समाज को सिखलाने के लिए प्रशिक्षण करने के लिए व्यवस्था बनी थी उसी नेग को बताने के लिए ईशर-गौरा विवाह पर्व मनाया जाता है ।
जब पृथ्वी में इंसान मानव रूप में रहने लगे थे । तब प्रथम विवाह किसका हुआ ? और विवाह के सम विषम यानि अलग अलग पेन(देव) से विवाह करने की प्रथा कब से सुरु हुई ? इसे समझने के लिए यह पर्व बनाया जाता है ।


हमारे समाज में विवाह को उचित मान्यता दिलाने वाली ईशर राजा और गौरा रानी का विवाह हुआ और व्यवस्था बानी जिसे बड़ा विवाह, कुयेरा विवाह भी कहते है । उसी विवाह को आज हम एक दस्तूर के रूप में परम्परा के रूप में मानते है और प्रचलन में है । ऐसा करने की जरुरत क्यों ? क्योकि हमारा समाज अन्य धर्म के संपर्क में आने से अपनी परम्परा नेग दस्तूर भूल गया है या देखा देखी में दुसरे के परम्परा को अपने में मिला लिया है ।
अन्य धर्म में जयमाला कर देने से विवाह हो जाता है और ईसाईयों में अंगूठी पहनाने से होता है उसी को मुस्लिम लोग निकाह कहते है । हमारे कोइतुर समाज में विशेष प्रकार का दस्तूर होता है । इसी दस्तूर को सिख करके समाज में अपने बेटा-बेटी का विवाह करते है ।
ईशर-गौरा विवाह कार्तिक अमावस्या में करते है, देव उठानी एकादश्मी में भी करते है और पूर्णिमा में करते है । कोई निश्चित दिनांक नहीं है । कार्तिक माह से प्रारम्भ होता है और माघ फागुन तक पर्व मानते है । विभिन्न क्षेत्र में व्यवस्था अनुसार मनाया जाता है ।
इस पर्व में ‘फूल कुचारते’ है । लोग जोहर जोहर कहते है और जगोनी जोहरनी गीत गाते है । फूल में एक अंडा, सिक्का, कोयेला को डाल करके मूसर में उसे कुचरते है, चौरा में ले जाते है । अंडा, सिक्का, कोयला, फूल इसलिए डालते है क्योकि हमारे पूर्वजो के अनुसार फूल का श्रजन करना मतलब लड़की कलि से फूल बन गई है। ‘फूल कुचरना’ यानि जब स्त्री मासिक धर्म में नहीं आएगी तब तक फल नहीं लगेगा ।
अंडा का श्रजन करते हुए अंडा डालते है क्योकि हमारा उत्पत्ति अंडा से हुआ है, कोक से जन्मे है। माँ के गर्भ से हुआ है, जीवो की उत्पत्ति । हम किसी भी प्रकार से अन्य जगह से पैदा नहीं हुआ है । जब हम ईशर राजा और गौरा रानी का श्रजन करते है और उसके पीछे दूल्हा और दुल्हिन का श्रजन करते है । उसमें सात प्रकार के फूल और सिक्का जो धन के रूप में है डालते हैं।
धन के रूप में सिक्का इसलिए चड़ाया जाता है क्योंकी परिवार शुरु करने के लिए धन की अवशाकता होती है जिससे वह अपने रूचि के अनुसार सामग्री खरीद कर व्यवसाय या अन्य कार्य करे । अन्न के रूप में चावल चडाते है क्योकि अन्न(खाना) के बिना जीवन संभव नहीं ।
कुवारी मिटटी से ईशर राजा और गौरा रानी की मूर्ति एक प्रतिक के रूप में बनाते है और प्रथापित कर दिया जाता है । ईशर मतलब ऐसा सर जो कभी झुखा न हो, उसको दूल्हा देव भी कहते है।


कार्तिक अमावश्य की रात को सुरोती भी कहते है इस रात से ठण्ड अधिक बड जाता है । ये मान्यता है कि ईसर-गौरा की शादी के बाद से ही गांव में शादी शुरू होती है । सुरोती के एक सप्ताह या पांच दिन पूर्व गवारा चबूतरा में एकत्रित होकर गवरा जगाते है, तब से लगातार सुरोती की रात तक गांव की कन्या ये मधुर पारम्परिक गीत गाकर ईसर-गवरा और गांव की देवी देवता को सुमरते(पूजा) है..!
अमावश्य सुरोती की शाम को गांव के सभी घर में कोने कोने में दीया जलाया जाता है, जगमग-जगमग जलते दीये गांव का कोना – कोना को रोशन कर देते है, जिसे देखकर ऐसा लगता है मानो प्रकृति पेन(देव) रूप में साक्षात विराजे है …
सुरोती की रात को गांव की महिलाएं अपने अपने सिर पर करसा(कलश) लेकर धूम-धाम से बाजे गाजे के साथ घर-घर जाकर करसा परघाते है, इस अवसर पर महिलाएं मधुर करसा पराघौनी गीत गाती हैं और एक स्थान पर इकट्ठा होकर ईसर गावरा जुलूस में शामिल होती हैं, ईसर गवरा की जयकारा लगाकर गांव का भ्रमण करते हैं और गवरा चबूतरा में सभी करसा को रख देते है..!
अमावस्या की अंधेरी रात में महिलाओं के सिर पर झिल मिल जलते हुए कलश का झुंड, बाजा के साथ गाती महिलाओं की मधुर गीतों का स्वर, देवता झुपते बैगा, सिरहा….ये नज़ारा देखते ही बनता है….ऐसा लगता है मानो ईसर गवरा की बारात में गांव के सभी देवी देवता भी शामिल हो गए हों..!
आधी रात को सभी महिलाएं नया करसा में तालाब से पानी भरकर लाती हैं जिसे झिलमिल पानी कहते हैं, सुबह बाजे गाजे के साथ ईसर गवरा को तालाब में ठंडा करते है..!
यूँ तो एक दीए से पूजा की जा सकती है लेकिन घर के कोने कोने में एक साथ कई दीए जलाए जाते हैं…
जय जोहर