

2006 के वन अधिकार अधिनियम को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।
ग्रेट ब्रिटेन या जर्मनी की आबादी से अधिक भारत में 100 मिलियन से अधिक जनजातियां हैं । देश के जंगल केवल वहीं रहते हैं जहाँ जनजातियाँ रहती हैं । जंगल में रहने का आपका अधिकार सुरक्षित होना चाहिए ।
जंगल के रक्षक कोयतूर जनजातियों के लिए, जंगल एक प्राकृतिक संसाधन है जिसका वह उपयोग कर सकते हैं । जनजातियों का जीवन और संस्कृति कृषि और जंगलों पर आधारित है । अंग्रेजों के आने से पहले किसी ने भी हमारे इस अधिकार को चुनौती नहीं दी थी । यह हमेशा माना जाता रहा है कि जंगल जनजातियों के हैं और उन पर उनका पहला अधिकार है । क्योंकि सभी जानते हैं कि जहाँ कोयतूर है, तो एक जंगल है और अगर कोई दुनिया को बचा सकता है, तो वह कोयतूर है ।
यहां तक कि विदेशी शासकों को जंगल में कोयतूर गांवों को तबाह करने और वनों से कोयतूर को बेदखल करने का क्रूर विचार नहीं था । यह विचार इस तथाकथित कंपनी-वित्तपोषित प्रणाली में उत्पन्न नहीं हुआ । आपने देखा होगा कि आजादी के बाद, बड़ी संख्या में जनजातियों को जंगलों से बाहर निकाल दिया गया और देश के वन क्षेत्र को कम कर दिया गया ।
“वनों की सुरक्षा या पर्यावरण की रक्षा” सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से का कोई लेना-देना नहीं है । यह स्वयंसिद्ध है कि जंगल आज भी उन्हीं जगहों पर हैं जहां कोयतूर रहते हैं । क्योंकि कोयतूर समझते हैं कि प्राकृतिक वनों की खेती नहीं की जा सकती, वे खुद बनाते हैं । जनजातियों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था के तहत खुद पर कुछ प्रतिबंध लगाए हैं । इन प्रतिबंधों के तहत, वे लाभदायक महुआ, आम, करंजा, जामुन, केंद्र, आदि पेड़ों को नहीं काटते हैं । सखुआ के पेड़ का प्रतिबंध यह है कि इसे एक मीटर छोड़ने के बाद काट दिया जाना चाहिए । वे हमेशा जलाऊ लकड़ी के लिए सूखे पेड़ों की लकड़ी लाते हैं । जितना जरूरत हो, उतना ही जंगल से चीजें लाते हैं । इसलिए, जहां जनजातियां हैं, वहां जंगल बने हुए हैं । शहरों में जनजातियां नहीं हैं, जंगल गायब हो गया है ।
खनिज संसाधन के लिए जनजाति इलाको में खुदाई का आदेश । सरकार के इस फैसले का जनजातीय जीवन पर भयानक प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि न केवल उन्हें जंगल से निकाले जाने लगेगा अपितु उनकी पारंपरिक व्यवस्था भी समाप्त हो जायेगी, उनके जीवन का आधार खो जाएगा । कोयतूर अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि और जंगलों पर आधारित है । कुछ महीने, अगर वे कृषि पर निर्भर हैं, तो कई महीने वन उत्पादों पर । सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के कारण लाखों जनजातियों का जीवन संकट में पड़ गया है ।
एक ओर सरकार ने सभी जंगल न काटने का वादा किया है, और दूसरी ओर सरकार जंगल में खनन करने की अनुमति देती है । सरकार को हमें यह भी बताना चाहिए कि रातों रात मेट्रो के लिए पूरे जंगल काट दिए गए थे? यह हमें गुमराह करके अपना काम कर रहे है । अगर कोई आदिवासी जंगल में प्रवेश करता है, तो उसे जुर्माना भरना पड़ता है, उसे जेल जाना पड़ता है । यह लोकतंत्र के बिना सरकार नहीं है । एक ओर हम इस कानून का उल्लंघन करते हैं तो हमें सजा मिलती है । घर की जरूरतों के लिए जंगल से पत्ते, लकड़ी और अन्य आवश्यकताएं लाना सही नहीं था ।
एक कठोर सत्य है की 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ और 26 जनवरी, 1950 को देश के शासन के लिए भारतीय संविधान लागू किया गया । संविधान की दिशा में, हम, भारत के लोग, भारत को “धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक और समाजवादी गणराज्य” बनाने के लिए दृढ़ हैं । जनजातियों के नियंत्रण के लिए (क्रमादेशित जनजातियों) इसे लागू किया जाएगा और पांचवा कार्यक्रम अबुआ राज्य के संविधान के इन प्रावधानों को कमजोर किया जायेगा ।
कभी-कभी हम इसे महसूस करते हैं, जैसे कि हमारे महान क्रांतिकारी योद्धाओं के बलिदान व्यर्थ गया क्योंकि उनके विचारों में बहुत कम लोग चलते हैं । लेकिन कुछ लोग अभी भी छाती पर, दीवारों पर, बोर्ड पर या कहीं और, बस “अबू डिसम, अबू राज” लिखकर । कुछ लोग समाज को बचने के लिए आगे आ रहे है, कहीं न कहीं हमारे समाज के लिए काम कर रहे है । कुछ हमारे लोग हमारा साथ नहीं दे रहे हैं जिससे सरकार को हमें ख़त्म करने में आसानी हो रही हैं । इन जैसे लोगों की वजह से आज हमारे जंगल जल रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं, ज़मीन शुष्क होती जा रही है, वनस्पति लुट रही है । इस प्रकार के लोगो को सभी को मिलकर समझाना चाहिए । जो भी हो, हमें अपने जल, जंगल और ज़मीन के लिए लड़ते रहना होगा । हम न तो गाँव छोड़ेंगे और न ही पानी, जंगल, ज़मीन छोड़ेंगे ।
क्या आपको लगता है सरकार कोयतूर इलाको में खनन करने के लिए दिए अधिकार को हमारे लोग आसानी से स्वीकार करेंगे ? य़ह कहना कठिन है । अतीत को देखते हुए, आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह अधिक विरोध किया जाएगा । यह माना जा सकता है कि सरकार ने इस मामले में सही बचाव नहीं किया है । इस आदेश में बदलाव के लिए समीक्षा के लिए याचिका दायर करना या कुछ अन्य कानूनी तरीके अपनाना या अध्यादेशों या कानूनों के माध्यम से जनजातियों के अधिकारों की रक्षा करना सरकार के लिए उचित होगा ।
आज भगवान बिरसा की आग लोगो में जलने लगी है, आज धरती फिर से लौट आई है । सीने में ज्वाला जलने लगी है । उलुगुलान, उलुगुलान ।
“मैं केवल शरीर नहीं हूं ।
मैं जंगल का पैतृक दावेदार हूं ।
किताबें और उनके दावे मरते नहीं हैं ।
मैं भी मर नहीं सकता ।
मुझे जंगल से कोई नहीं निकाल सकता ।
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!’’
(⚔ जय मूलनिवासी जय भीम ⚔)