“लोहा आयरन का निर्यात (export) शब्द का उदभव: इतिहास का पुनर्लेखन
लौह अयस्क याने (Iron ore) के लिए गोंडी में शब्द है “इम”
“इम” अर्थात लौह अयस्क को लौह भट्टी में निश्चित ताप और दाब देकर जो आयरन प्राप्त होता है उसे गोंडी लैग्वेज में “कच्च” कहते हैं।
आयरन अयस्क को गलाने की भट्टी के लिए ” कच्च सार ” — कच्च + स + आर
आयरन अयस्क संग्रहण में लगा समुदाय क + इम + आर = कमार
यहाँ “आर” का अर्थ होता है “तीर “
सबसे पहले “तीर” की खोज का श्रेय हम इन्ही कमार समुदाय को देते हैं।


“बिल ” का अर्थ है धनुष…. सबसे प्रसिद्ध धनुर्धर हम “भिल/बिल ” समुदाय में देखते हैं भील समुदाय ने हजारों सालों से भारत के भूस्थलीय सीमाओं की रक्षा इसी मजबूत “आर” और “बिल” से किया … इनके रहस्य और मजबूत तीरो से दिकू हमेशा से अचंभित रहते थे।
अब “तीर ” को और मजबूत और नुकिला करने के लिए और ….अच्छे क्वालिटी के आयरन की आवश्यकता होती थी और यह अच्छे क्वालिटी के आयरन गोंडवाना बेल्ट में भरी पड़ी थी।
कांस्य युगीन सभ्यता के दौर में तांबा, कांस्य धातुओं ने हजारों वर्षों तक मानव सभ्यता पर राज किया पर गोदावरी नदी के ऊपरी गोंडीयन भागों में अचानक लौहे की खोज ने दुनिया के तत्कालीन विज्ञान को बहुत आगे पहुंचा दिया।
दुनिया के हर हिस्से में आयरन याने “कच्च ” की मांग होने लगी, गोंडवाना बेल्ट के हर “नार्र ” अर्थात “गाँव” में “कच्च सार” याने “आयरन भट्टी /फैक्ट्री” अनिवार्य कर दी गई … जो आज भी देखने को मिलती है।
दुनिया में कृषि करण बहुत ही आसान हो गया। जुताई करने के लिए आयरन फाल, कुदाल, गैंती आदि कृषि उपकरणों की मांग बढ़ने लगी।
कृषि उत्पादन बढ़ने लगा …. सम्पन्नता बढ़ती गई। बाहरी आक्रमणकारियों की नज़र एक बार फिर पुर्वोत्तर भारत के इलाकों पर पड़ने लगी।


देश के रक्षक भील समुदायों को इन बाहरी आक्रमणकारियों से मुकाबला करने के लिए अच्छी किस्म के मजबूत आयरन के “तीर ” की आवश्यकता होने लगी….. तीर की मांग बढ़ने लगी।
यह दौर था 1600 ईसा पूर्व से 600 ईसापूर्व के बीच का कालखंड …. मध्य भारत में आयरन उत्पादन के बल पर विशाल गोंडवाना 1750 वर्षों तक अक्षुण्य बना रहा…..मौर्य शासकों ने आयरन के बल पर ही पुरे देश भर में कन्ट्रोल करने की कोशिश करते रहे…. अशोक का कंलिग अभियान भी लोहे पर नियंत्रण का ही एक छुपा हुआ कारण है।
इस तरह से हर चीज की मांग बढ़ने लगी। हर किसी की उम्मीदें बढ़ने लगी। सबकी निगाहें मध्य गोंडवाना की ओर टिकने लगी।
……….सब तरह से आवाजें आने लगी…..”लोहा” “लोहा” “लोहा” “लोहा” “लोहा”…….. “लोहा “
(लोहा गोंडी लैग्वेज का शब्द है जिसका अर्थ है “भेजो “..भेजो.. भेजो… भेजो….. भेजो… भेजो…. अर्थात लोहा = निर्यात (export) अर्थात ऐसी धातु का निर्यात जो दुनिया को बचा सके .. . . आक्रमणकारियों से, भूखमरी से… . अर्थात लोहा/कच्च/इम कालान्तर में गोदावरी और नर्मदा नदी के बीच के भूभाग से दुनिया के लगभग हर हिस्से में आयरन का इतना ज्यादा निर्यात हुआ कि.. . . . .. . आयरन और इस्पात के लिए पुरे देश भर में “लोहा” ही शब्द इस्तेमाल होने लगा और यह युग भी लौह युग कहलाया।


लौह अयस्क का संग्रहण खनन में
लौह अयस्क से इस्पात बनाने में
लौह इस्पात से लौह उपकरण बनाने में
उन लौह उपकरणों का निर्यात करने में
.. . . .. . . हम मूल कोयतोरियन/ इडिजीनस समुदायों का ही पूर्णतः नियत्रंण रहता था
आयरन के “निर्यात” में अर्थात “लोहाना” में.. .. . लोहार
आयरन अयस्क के सांद्रण व तीर निर्माण में…
कमार= क (कच्च) +इम+आर
आयरन अयस्क के संग्रहण व गलाने में.. . . अगारिया= अग +आर + रिया
आयरन से इस्पात —असुर जनजाति
आयरन से कृषि उपकरण– वाडे समुदाय… . . . आदि आदि।


अब देखते हैं कि “कच्च ” अर्थात आयरन अर्थात लोहे का निर्यात देश और विदेश में किस किस माध्यम से होता था। पश्चिमोत्तर भारत व अरब देशों को निर्यात नर्मदा/नारगोदा नदी के माध्यम से अरब सागर में होता था। इस लिए अरब सागर की ओर … हमारे तटीय खाड़ी जहा भारी मात्रा में “कच्च” अर्थात आयरन जमा हो जाता था…… उस जगह का नाम भी गोंडी लैग्वेज में “कच्च_की_खाड़ी” पड़ा..
नर्मदा नदी के मुहावने या “कच्च ” से उस छोर में सिंधु नदी मुहावने तक भी लोहे का निर्यात सुनिश्चित हुआ। पहली सदी के भूगोलवेत्ता पेरिप्लस ऑफ द इरिथ्रियन सी के लेखक टॉलमी और रूद्र दामन के गिरनार अभिलेख में भी इसका जिक्र है।
उत्तर में. सुदूर अफ्गानिस्तान तक “कच्च धातु” को पहुचाने के लिए “कोच्चयो” जनजाति थी। मुल्तान में इसी तरह के जनजाति को “लोहानी” कहा जाता है। इसी मुल्तान में कच्च धातु के व्यापार पर “कच्चोट” राजवंश का हजारों साल तक नियंत्रण था।


.. इस राजवंश का टोटम भी मेरे जैसे हमुल जीव ही था। मुल्तान के “लोहाकोट” से तो आप परिचित है ही पुर्वोत्तर भारत में गोंडवाना का “पुर ” अर्थात गढ़ “पुरी ” नगर मुख्य निर्यात केन्द्र था….. 240ईसा पूर्व में एक महान जनजातीय गोंड राजा हुऐ….. जो आयरन के विदेशी निर्यात(लोहाना) के कारण “लोहाबाहू ” नाम से प्रसिद्ध हुए…. यह राजा अशोक के समकालीन थे…. इन्होंने ही पुरी में जंगा_लिंगो की गुड़ी /राउड़ स्थापित किया था जो आगे चलकर जग्गन्नाथ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ!
(लेख बहुत लंबी हो रही है यही खत्म करते हैं…. कच्च/इम धातु का निर्यात शेष दिशाओं में कैसे होती थी यह बातें अगले अंकों में जारी रहेगी)
मूल बात यह है कि
हम युवाओं को हमारे कोयतोरियन/ इडिजीनस टेक्नोलॉजी पर गर्व होनी चाहिए….. 1600 साल तक जंग नही लग पाने वाली महरौली स्तंभ का निर्माण भी हमारे ही कच्च_सार भट्टियों में हुई थी…. किसी भाषा के प्राचीन होने…. उनके मूल होने का परीक्षण उनके शब्दकोश की गहराइयों से किया जाता है…… प्रचलित तकनीकी शब्दावली पर उस भाषा के प्रभाव पर भी समझा जाता है… गोंडी समुह की भाषा ब्राहुई सुदर इरान और अफगानिस्तान तक फैली हुई है।


मूल भाषा होने के लिए वनस्पतियों की खोज, धातुओ की खोज, कपड़े की खोज, औषधियों की खोज… आदि आदि सबके तार उस भाषा से संबंधित होनी चाहिए…. हमें गर्व है कि हमारी भाषा हर तरह के मानकों पर खरी उतरती है….. यह इसलिए भी जरूरी है कि हमारे शब्दों पर आज दुनिया की इकोनॉमी टिकी हुई है…. युक्रेन वर्तमान युद्ध में लोहे के दम पर टिका हुआ है…. जापान.. लोहा जमा कर तकनीक के सहारे दुनिया को प्रभावित कर रहा है… चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा लोहा आयातक है..उसके सस्ते उपकरण सब देशों की इकोनॉमी को खराब कर रहा है.. अरब देश अपने तेल के पैसे को लोहा खरीदने में लगा रहे हैं….. महान बिरसा मुंडा ने भी इन्ही प्राकृतिक संसाधनों पर दुसरो के कब्जे के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए आज के दिन ही अपनी शहादत दी थी…. महान बिरसा मुंडा दादी को नमन सेवा जोहार….
एक बार फिर से
इम = आयरन अयस्क
कच्च= लोहा
लोहा== निर्यात
आर = तीर
कच्च सार== लौह भट्टी
आप सभी को बहुत बहुत सेवा जोहार !!! कच्च जोहार!!! इम जोहार!! बिरसा मुंडा दादी को नमन सेवा जोहार!!!