

भारतीय संविधान और लोकतंत्र गंभीर संकट में, 26 नवंबर 1950 को भारतीय संविधान लागू होने के साथ भारत एक गणतांत्रिक लोकतंत्र बना ।
जिसके निम्न अर्थ थे-
● भारत के 5 हजार वर्षों के इतिहास पहली बार इस बात की घोषणा की गई कि आज के बाद कोई व्यक्ति जन्म, नस्ल, लिंग, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार किसी से बड़ा या छोटा नहीं होगा । सभी भारतीयों के समान अधिकार होंगे ।
● इस तारीख के बाद से भारत किसी धर्मग्रंथ, स्मृतियों, ईश्वर, देवी-देवता या महापुरूष के निर्देशों, आदेशों और नियमों के अनुसार नहीं चलेगा, बल्कि संविधान और कानून के अनुसार चलेगा । इसका मतलब है कि धर्मग्रंथों-स्मृतियों के आदेशों से भारत को मुक्ति मिल गई ।
● भारत में केवल लोकतंत्र की घोषणा नहीं, गणतंत्र बना । इसका अर्थ यह था कि भारत में शासनाध्यक्ष (प्रधानमंत्री) और राष्ट्राध्यक्ष ( राष्ट्रपति) दोनों जनता द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर चुने जायेंगे । यानि इस देश में किसी को भी स्वाभविक तौर कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होगा । इसका मतलब था कि ब्रिटेन या जापान की तरह यहां किसी राजा-रानी कोई विशेष अधिकार नहीं दिया गया ।
● इस सबका निहितार्थ था कि भारत में सबसे संप्रभु शक्ति (निर्णायक) जनता होगी । यानि भारत में निर्णय करने के सारे अधिकार जनता के हाथ में होंगे । जिस अधिकार को जनता अपने चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से इस्तेमाल करेगी ।
● संविधान की इन सभी घोषणाओं का सबसे अधिक फायदा भारतीय शास्त्रों-हिंदू धर्म द्वारा शूद्र (ओबीसी) अतिशूद्र ( दलित) और महिलाओं का हुआ । जिन्हें संविधान लागू होने से पहले समानता का अधिकार प्राप्त नहीं था ।
● इस संविधान से सबसे अधिक दुखी विशेषाधिकार प्राप्त कुछ सवर्ण जातियो के लोग हुए, जिनके विशेषाधिकारों को इस संविधान ने सिद्धांत और नियम के तौर पर खत्म कर दिया ।
● भारत में संविधान लागू होने के साथ ही राजनीतिक लोकतंत्र कायम हो गया यानि सबके वोट का महत्व समान है और सबकों राजनीति में हिस्सेदारी, चुनाव लड़ने और राजनीतिक सत्ता पर नियंत्रण करने का अधिकार है ।
● वोट समान अधिकार ने बहुसंख्यक बहुजन समाज- ओबीसी, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों को यह मौका दिया कि वे वोट के अधिकार का इस्तेमाल कर सवर्णों के वर्चस्व एवं नियंत्रण की चली आर रही स्थति को तोड़ सकें । लेकिन जैसा कि भारतीय संविधान के मुख्य रचयिता डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि संविधान कितना ही अच्छा या बुरो हो, तो भी वह अच्छा है या बुरा है, यह आखिर में शासन चलाने वालों द्वारा संविधान की किस रूप में इस्तेमाल किया जाता है । इस पर निर्भर करेगा ।
26 नवंबर 1950 को संविधान लागू होने और भारत के गणतांत्रात्मक लोकतंत्र बनने के बाद तरह-तरह के संकट आते रहे हैं, लेकिन सबसे गंभीर संकट 2014 में देश की सत्ता आरएसएस-भाजपा के हाथ में जाने का बाद हुआ है । यह संकट निम्न रूपों में सामने आया है-
● भारतीय संविधान और लोकतंत्र का भविष्य पारदर्शीय चुनाव प्रक्रिया पर निर्भर करता है । इसके लिए जरूरी है कि चुनाव आयोग स्वायत्ता और निष्पक्ष हो और चुनाव प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शीय हो । मोदी सरकार के पिछले 6 वर्षों का इतिहास इस बात साक्षी है कि चुनाव आयोग ने अपनी स्वायत्ता और निष्पक्षता खो दी है । वह सरकार एक उपकरण के रूप में काम कर रहा है । ऐसे लोगों को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जा रहा है, जो सरकार के प्रति वफादार हों, न कि स्वायत्ता हों और निष्पक्ष चुनाव काराएं । इसके साथ ईवीएम पर संदेह ने भी चुनाव की पारदर्शीता को प्रभावित किया है ।
● चुनाव की पूरी प्रक्रिया पर कार्पोरेट मीडिया और कार्पोरेट चंदे ने नियंत्रण कर लिया है । कार्पोरेट घराने भाजपा को इतना चंदा दे रहे है कि उसके पास अन्य पार्टियों की तुलना में चुनाव लड़ने के लिए अकूत धन है । इस धन का इस्तेमाल मतदाताओं को प्रभावित करने और विधायक-सांसदों को तोड़ने और खरीदने के लिए भाजपा कर रही है । कार्पोरेट मीडिया का बड़ा हिस्सा भाजपा का चुनाव प्रचाकर बन गया, जो मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में प्रभावित करने के लिए रात-दिन लगा हुआ है ।
● भारतीय संविधान और लोकतंत्र के सामने दूसरा सबसे बड़ा संकट न्यापालिका द्वारा सरकार ( भाजपा) के पक्ष में समर्पण के रूप में सामने आया । निचली अदालनों को भाजपा की सरकार ने डर और प्रलोभन से अपने पक्ष में कर ही लिया है । भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी कमोवेश उनके सामने समर्पण कर चुका है । ओबसी, एससी, एसटी विरोधी फैसलों के साथ जम्मू-कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति, बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद, नागरिकता कानून और अन्य मामलों पर अदालत के रूख और निर्णय से इसको समझा जा सकता है ।
अब तो खुलेआम सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश (अरूण मिश्र) प्रधानमंत्री की तारीफ कर रहे हैं । जो न्यायाधीश सरकार के खिलाफ फैसले देने की हिम्मत जुटा रहे हैं, उन्हें तरह-तरह के प्रताड़ित किया जा रहा है और जो सरकार के पक्ष में खड़े हो रहे हैं, उन्हें पद-प्रतिष्ठा देकर पुरस्कृत किया जा रहा है ।
उदाहरण रंजन गोगोई दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश मुरलीधर के रातों-रात तबादलने के आदेश से इसको समझा जा सकता है । जय लोया प्रकरण के बाद न्यायाधीशों को जान का खतरा भी सता रहा है । भारतीय संविधान में उच्च न्यायालय ( हाईकोर्ट) और सर्वोच्च न्यायालय ( सुप्रीमकोर्ट) को संविधान के संरक्षक की भूमिका सौंपी गई है । लेकिन इनके सामने ही संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और ये न्यायालय चुपचाप देख रहे हैं या सरकार का साथ दे रहे हैं ।
● मीडिया को लोकतंत्र को चौथा खंभा कहा जाता है, लेकिन यह चौथा खंभा पूरी तरह भरभरा कर गिर चुका है । यह खुद ही लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है । यह रात-दिन सरकार की भोंपू की तरह कार्य करता है और उन सभी विचारों, तर्कों और तथ्यों को प्रचारित-प्रचारित करता जो भारतीय लोकतंत्र की जड़े को खोखला करते हैं । इसने अपने सारे नकाब उतारकर सिर्फ और सिर्फ सरकार का प्रचार बन गया है और पूरे समाज में नफरत फैला रहा है ।
● विपक्षी राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र और संविधान का सबसे बडा संरक्षक होती हैं, लेकिन इस समय अधिकांश पार्टियां सरकार के समक्ष समर्पण कर चुकी हैं । इनमें से कुछ सीबीआई, ईडी आदि का डर सता रहा है । सरकार इन संस्थाओं का इस्तेमाल विपक्षी पार्टियों के खिलाफ कर रही है, लेकिन यह भी सच है कि बहुत सारे नेताओं ने अपने और अपने परिवार के लिए सत्ता में रहते अनाप-शनाप तरीके से धन-पद भी जुटाए थे । ऐेसे लोग डरे हुए हैं ।
● इसके अलावा चूंकि चुनाव काफी हद पैसा लगाकर जीतने की परिघटना बनात जा रहा है, ऐसे में बहुत सारे ऐसे नेता पैदा हुए हैं, जो पैसे के बल पर टिकट प्राप्त करते हैं और चुनाव जीत जाते हैं । ऐसे लोग पैसे और पद के लिए बिकने को तैयार हो जाते हैं । यह परिघटना कर्नाटक और अभी हाल में मध्यप्रदेश में देखी गई । सच यह है कि राजनीति पूरी तरह सिद्धांतहीन और मूल्यहीन बन चुकी है ।
● अन्य स्वायत्ता कही जाने वाली भारतीय राज्य की संस्थाओं और एजेंसियों की स्वायत्ता को भी इस सरकार ने पूरी तरह से खत्म कर दिया है । ये संस्थाएं और एजेंसिया सरकार की कठपुतली बन चुकी हैं । इसमें सीबीआई, आईबी, रॉ जैसी एजेंसिया भी शामिल हैं । राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार (डोभाल) राज्य सुरक्षा सलाकार न रहकर पार्टी विशेष ( भाजपा) के कार्यकर्ता की तरह काम कर रहे हैं ।
● इस सरकार ने सेना जैसे पूरी तरह से गैर-राजनीतिक संगठन का भी राजनीतिकरण शुरू कर दिया है । इस उदाहरण पूर्व थलसेना अध्यक्ष और वर्तमान तीनों सेनाओं की कमान (चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस)) के प्रमुख बिपिन रावत के बयानों में देखा जा सकता है ।