

दशहरा गोंड़ का महत्वपूर्ण पर्व है। गोंड़ को मानव प्रजाति का प्रथम मूल कहा जाता है, Gond is first natural generation of human being… विश्व इतिहास गवाह है कि– गोंड़ राजाओं ने इस धरती पर लगातार 1750 वर्ष एक छत्र राज किये है… गोंड़ राजाओं ने पुरखा शक्ति और दैवीय शक्ति (प्रकृति शक्ति) के बल पर सबसे लंबे समय तक राज किये है….
क्वांर माह में गोंड़ अपने पुरखा शक्ति और दैवीय फड़ापेन शक्ति की आराधना कर शक्ति अर्जित करते थे और आज भी करते हैं..! दशहरा गोंडों का प्रमुख पर्व है और सदियों से मनाया जाता रहा है।
दशहरा :–
गोंड़ राजा अपने राज और प्रजा की खुशहाली के लिए लगातार 9 दिन तक दसई पूजा कर शक्ति अर्जित करने के बाद, राजा ठाना-बना के जितने हतियार उसे धो करके और अपने बडादेव खड़ा की पूजा करते थे, जो दसवें दिन महल से निकलकर लोगों का अभिवादन करने आते है। सेहरा के पेड़ को सेवा जोहर करके, वह सेहरा को जीत के अपने आशीर्वाद के साथ देखता था…! राज दरबार लगाकर लोगों की परेशानियों को सुनता था और बीड़ा पान खिलाते थे …! आज भी कवर्धा के लोहरा राज्य में, राजा बीड़ा पान खिलाते है …! बीड़ा पान मतलब यह राज्य का केवल राजा के नेतृत्व से नहीं, बल्कि राजा और प्रजा दोनों के मिलन से चलेते है …! यह व्यवस्था इसी उद्देश्य के लिए बनाई गई थी …! इसे दशहरा कहते हैं ..! आजादी से पहले गोंड की सभी रियासतों में यही परंपरा थी …!
दशहरा का अर्थ है दस शेर जो गोंडवाना के रक्षक थे, जिन्हें हमने दशानन, दसई पूजा, दसरेली पूजा मानाते और गोंगो करते है..! दशहरा कुमार माह में होता है कोई निश्चित दिनाँक नहीं है , हमारे में विजय दशमी नहीं होता ये मनुवादियों द्वारा भ्रम पैदा करने के किया गया है..!
राजा जिस स्थान में राज दरबार लगते थे उस स्थान को र भाटा,राव भाटा ,रावन भाटा के नाम से जाना जाता था जिसे आज लोग रावन दहन करने रावन मैदान के नाम से भी जनते है…! रावन मतलब राजा और भाटा मतलब मैदान(साफ जगह) यानि राजा के मिलने की जगह(रावन भाटा) ..!
हतियार को धो करके चलने लायक तैयार करते और प्रयोग करके देखते थे जिसे खड़ा पूजा कहते है, कोयतूर समाज में रजिया का बकरा बना करके काटने की व्यवस्था भी बनी है , क्योंकि बर्षा ऋतू के बाद शीत ऋतू आयेगा और नदी नाला सुखना शुरु हो जायेगे और दुश्मन नदी नाला को पार करके राज्य में आ सकता है ..!
गाँव में सोनाही, दसरेली मानते है तो गाँव का प्रमुख होता है वह खेरो में माता खेरो दाई (जो गाँव की प्रमुख माता होती है जमीदारीन होती है) उसके सामने गाँव का मुखिया प्रतिज्ञा लेता है इस गाँव की रक्षा के लिए अपने आप को कुर्बान कर दूगा यह संकल्प लेता है और उस दिन कारी बारई,खेरी बारई,कुकरी मुर्गी सूअर की बलि दे करके दसरेरी,दसई,दशानन,दस राव पाठ,सहनाई पूजा को संपन्न करते थे और जब वह उसी राजा गढ़ा में जाता था उस को रावन मुरी पूजा,खरेरा पूजा खडहर पूजा के नाम से जाना गया और इसी परम्परा को हमारा समाज आज तक करते आये..! गोंड़ पुरखा शक्ति के बिना कुछ नही करते हैं… इसलिए क्वांर लगते ही पितृ पक्ष में सबसे पहले अपने पुरखा शक्ति की पूजा करते है..!
पितृ पक्ष के बाद दशहरा पक्ष मे देव दशहरा पर देवी-देवता की पूजा, और जोत जंवारा के माध्यम से आदिशक्ति की आराधना करते हैं..!
जोत :–
दीपक और बाती से निकलने वाली रोशनी को प्रकृति की प्रत्यक्ष शक्ति माना जाता है, यही कारण है कि गोंड समाज अपने घरों और पेनठानो में दीप जलाता है ..!
पहले पूरे गाँव को महामारी तबाह कर देती थी, यही वजह है कि महामारी को माँ का प्रकोप माना जाता था।….घी के जोत जलाने से उससे निकलने वाले धुआं, सुगन्ध से महामारी का वायरस स्वयं नष्ट हो जाता है..!
इसीलिए महामारी को रोकने के लिए शक्ति के नाम से गांव वालों ने एक साथ सैंकड़ों जोत जलाना शुरू किया..!
तब से घर के डेहरी आंगन में सुबह शाम दिया जलाया जाता है..!
जंवारा:–
जोत के साथ सात प्रकार का अन्न मिलाकर जंवारा बोया जाता है..!
जिस प्रकार हमारे पूर्वज लोहे का बाणा को प्रकृति के प्रतीक के रूप में देवालयों में स्थापित किये हैं, जिसे सल्ला गागरा कहा जाता हैं..! सल्ला गागरा को (धरती और आकाश, मातृ शक्ति और पितृ शक्ति) के रूप में मानते हैं…. उसी प्रकार दिया (जोत) को भी प्रकृति का प्रत्यक्ष शक्ति मानते हैं..!
धरती और आकाश के अंतरंग संबंधों से होने वाले क्रियाओं को प्राकृतिक शक्ति (Natural power) कहते हैं … जिस प्रकार धरती को माता और आकाश को पिता कहते है, धरती और आकाश की आकर्षण शक्ति (Magnetic power) से धरती घूमती है तब दिन और रात, चार ऋतुएं ठंड, गर्मी, बरसात होती है, जब आकाश (पिता) से पानी बरसता है तब धरती माता के गर्भ में अनेकों प्रकार के जीव जंतु पैदा होते हैं, मातृ शक्ति और पितृ शक्ति के मेल से तीसरी शक्ति (संतान) पैदा होती है..!
उसी प्रकार जोत में दिया और बाती को जलने के लिए ईंधन रूपी तेल लगता है तब जीवन रूपी प्रकाश प्रकाशित होता है..!
आर्यों के आगमन के बाद~
भारत में आर्य संस्कृति और देश की मूल द्रविड़ियन (गोंडी) संस्कृति हमेशा से दो संस्कृतियों के बीच संघर्ष होता रहा है और आज भी जारी है …युरेसियन आर्य प्रचार करते है की वो सभ्य, शिक्षित है और मूलनिवासी द्रविड़ लोग असभ्य अनपड़ (अनाड़ी) थे, और आज भी …!
आर्य विष्णु कृष्ण और राम को अपना पूज्य मानते हैं, इसलिए अपने नाम के साथ राम लिखते है, जैसे ~ दौलत राम, राम प्रसाद ….
और द्रविड़ (अनार्य) राव को अपना पूज्य मानते हैं…और अपने नाम के साथ राव लिखते है जैसे~ रामा राव, विनय राव…
राव कौन हैं…? द्रविड़ सभ्यता में राव को पूज्य माना जाता है, गोंड अपने गांवों में आज भी राव पाठ को राव देवता के रूप में स्थापित कर पूजा करते हैं, दक्षिण में राजा या मुखिया को राव कहते हैं..!
दशहरा के दिन जब प्रजा अपने गोंड़ राजा का दर्शन करने उमड़ पड़ते थे, तब आर्य लोग चिढ़ कर राव पाठ को देवता मानने वाले हमारे गोंड़ राजाओं को रावण कहना शुरू किया, और मिथक काल्पनिक कहानी गढ़ कर दशहरा के दिन रावण के प्रतीक के रूप में हमारे राज का पुतला जला कर हमारी सभ्य दैविक संस्कृति, और राज को नष्ट करने का षड्यंत्र किये…और कामयाब भी हो गए..!
हम नासमझ दूसरे के बहकावे में आकर दशहरा पर रावण के प्रतीक के रूप में अपने राजा, अपने देवता और अपनी संस्कृति को हर साल जलाते आ रहे हैं..!
आज रावण के प्रतीक के रूप में खुद के पुतले को जलता देख हमारे राजा लोग और हमारे समाज के लोग खुशी से ताली बजा रहे..!!
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………✍ ठाकुर विष्णु देव पडोटी
गोण्डवाना के गोण्डियन परम्परा दशहरा पर्व की इससे सुंदर ब्याख्या नहीं हो सकती।
जय बुढा़देव