

कोयतूर सभ्यता का विकास क्रम
कोयतूरों, गोंडों की सभ्यता के विकास क्रम को हम इस प्रकार समझने का प्रयास करते हैं –
1.होमोसेपियंस का उदभव
साढ़े तीन करोड़ से दो करोड़ वर्ष पहले मानव मानव रूप में नहीं था । वह कपि अवस्था में था । कालांतर में इन कापियों की दो शाखाओं का विकास हुआ । एक शाखा जो जंगलों में रही वह रामापिथेक्स कहलाती । दूसरी शाखा जो जंगलों से बाहर मैदानों की ओर प्रवजन करना शुरू किया वह आगे चलकर आस्ट्रेलोपिथेक्स-अफ्रिकन्स कहलाया । यहआस्ट्रेलोपिथेक्स-अफ्रिकन्स ही आगे चलकर होमोसेपियंस के रूप में विकसित हुआ। होमोसेपियंस मानव की उस अवस्था का नाम है जब वह विवेकी बुध्दि को प्राप्त किया। उस अवस्था के बाद के सभी मानवों का वैज्ञानिक नाम होमोसेपियंस पड़ा । जिसे प्रज्ञ मानव भी कहा जाता है । स्वीडन के वैज्ञानिक कार्लवान लिने(1707-1778 ईस्वी) ने यह वैज्ञानिक नाम करण किया ।इस प्रज्ञ मानव को गोंडवाना लैण्ड की सबसे प्राचीन भाषा प्रग्द्रविडियन गोंडी भाषा में गोंड कहा जाता था । जिसका अर्थ विवेकी जीव होता है ।
2. पुरयाषाण काल
इतिहासकारों, पुरातत्वविदों ने पुरापाषाण काल को एक लाख ईसा पूर्व से दस हजार ईसा पूर्व माना है । इस काल में मानव ने सर्वप्रथम पत्थर का इस्तेमाल करना सिखा । पत्थर से पशुओं को मारकर शिकार करते थे । पत्थरों को आपस में रगड़कर आग पैदा करते थे । इनके प्रमुख्य आहारों में से एक महुआ का फूल था । ये महुआ के फूल को कोया फूल कहते थे । इस काल में गोंडवाना लैण्ड का मानव गुफाओं में रहने के कारण स्वयं को कोया या कोयेतूर कहते थे । कोया का आर्थ गुफा तथा तूर का अर्थ वंश,पुत्र या संतान होता है । ये स्वयं को गुफावंश या गुफा पुत्र मानते थे । कोया का दूसरा अर्थ आधार होता है । कोयेतूर का अर्थ आधारवंश भी होता है । इस प्रकार कोयेतूर प्राचीनतम मानव की प्राचीनतम संज्ञा है ।
3. मध्य पाषाण काल
मध्यपाषाणकाल दस हजार ईसा पूर्व से चार हजार पूर्व तक था।
क) दसहजार ईसा पूर्व
दस हजार ईसा पूर्व में ये कोयेतूर/गोंड छोटे-छोटे समूहों में रहते हुए एक स्थान से दुसरे स्थान तक प्रवजन करते रहते थे । इस समूह को कबीला कहा जाता था प्रतेक समूह का एक मुखिया होता था । ये सामुहिक रूप से शिकार,सुरक्षा व भोजन का प्रबंध करते थे । विभिन्न समस्याओ का सामूहिक समाधान व बीमारों का इलाज करते थे । कबीले के किसी सदस्य की मृत्तु हो जाने पर उसे किसी गढढे में लिटाकर पत्थरों से ढक देते थे ।
ख)आठ हजार ईसा पूर्व
आठ हजार ईसा पूर्व के आते आते कोयेतूरों (आधारवंशियों) ने आइस्थाई खेती शुरू कर दिया था । मैदानी क्षेत्रों में बीज डाल देते थे । फसल पकने पर उसका उपयोग करते थे । यह कार्य स्थाई नहीं था । वे जगह बदलते रहते थे ।
ग)छ: हजार ईसा पूर्व
छ: हजार ईसा पूर्व में कोयेतुरों ने स्थाई खेती करना शुरू कर दिया था । वे धन का संचय व स्थाई रूप से निवास करने लगे जिससे नर गण्ड व्यवस्था अर्थात् गावं का विकास शुरू हुआ ।
घ) पांच हजार ईसा पूर्व
पांच हजार ईसा पूर्व के आते आते अनेक अलग-अलग गावों का मिलकर एक कोट गण्डराज्य का निर्माण शुरू हुआ। इसे कोट गण्ड व्यवस्था कहा गया । इस कल में धीरे-धीरे पत्थरों, ईटों के कोट व परकोटा,पक्की महल बनना शुरू हुआ । व्यापार,लघु उद्योग व उन्नत कृषि की शुरुआत हुई, गेंहू आदि अनाज का निर्यात व विनिमय शुरू हुआ । यह सिंधु घाटी सभ्यता का प्रारंभिक व मध्य युग था ।
4.नव पाषण काल
नव पाषण काल या उत्तर पाषण काल चार हजार ईसा पूर्व से दो हजार ईसा पूर्व तक था ।
क)चार हजार ईसा पूर्व
चार हजार पांच सौ बीस ईसा पूर्व में पेंकमेढी कोट के कोट प्रमुख कुलीतरा के यहाँ कोसोडुम नामक बालक का जन्म हुआ। यह बालक बड़ा हो कर धरती में सर्व प्रथम सत्य का दर्शन (पुनेम) प्रतिपादित किया । जिसे कोया या गोंडी पुनेम के नाम से जाना जाता है । संय्युंग भू-दीप (पंचखण्ड धरती) में उनके जैसा कोई ज्ञानी नहीं था इसलिए प्रजा में उन्हें संभू(संय्युंग भू) शेक(मालिक) अर्थात पंच खण्ड धरती के मालिक नामक उपाधि से सम्मानित किया । यह पद बन गया जिसमें अठ्ठासी उत्तराधिकारी पदस्थ हुऐ ।
ख)दो हजार ईसा पूर्व
दो हजार दो सौ आठ ईसा पूर्व में पुर्वाकोटगण्ड राज्य में कोटप्रमुख पुलशीव हिरवा के यहाँ रुपोलंग नामक बालक का जन्म हुआ । यह बालक बड़ा होकर अपनी ज्ञान, प्रतिभा,अविष्कार व भूमिका के कारण कोया या गोंडी पूनेम के द्वितीय प्रणेता के रूप में प्रसिद्ध हुआ । जनता ने इनको पारी कुपार लिंगों नामक उपाधि से सम्मानित किया । इन्होने दो हजार दो सौ तीन ईसा पूर्व में कोट गण्ड व्यवस्था कोपरिवर्तित कर सात सौ पचास(750)कुल गण्ड व्यवस्था की स्थापना की ।
पच्चीस सौ ईसा पूर्व से सत्रह सौ पचास ईसा पूर्व
पच्चीस सौ ईसा पूर्व से सत्रह सौ पचास ईसा पूर्व तक कोयतूरों/गोंडों ने उत्कृष्ट सभ्यता के नाम से सिंधु घाटी की सभ्यता के नाम से विश्व प्रसिद्ध है । आर्यों के आक्रमण के दौरान इंद्र सेना व कोयेतुरों के बीच हुए भीषण संग्राम में इस सभ्यता को नष्ट कर दिया गया । यह आक्रमण अठ्ठारह सौ पचास ईसा पूर्व में हुआ । लगभग सौ वर्षों तक यह भीषण संग्राम जरी रहा ।जब पंद्रह सौ ईसा पूर्व से एक हजार ईसा पूर्व के बीच आर्य ब्राह्मणों के द्वारा ऋग्वेद की रचना की गई तो उस संग्राम को देवासुर संग्राम नाम दिया ।
जानकारी के लिए आपका सहृदय आभार🙏🏻