

1757 में पलाशी की लड़ाई में लॉर्ड क्लाइव की जीत के बाद से, मेदिनीपुर के जनजातियों ने भारत में जल जंगल जमीन के अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए ईस्ट इंडिया से लड़ाई शुरू की।
मेदिनीपुर में एक के बाद एक कोयतूरों द्वारा तीन ब्रिटिश कलेक्टरों को मार डाला । बंगाल और छोटा नागपुर में इसे भूमिज विद्रोह कहा जाता है।
जल जंगल जमीन की लड़ाई में शामिल जनजातियों को अंग्रेजों द्वारा स्वभाव से आपराधिक जनजाति घोषित किया गया था।
बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में तब सिर्फ जनजातियां ही जंगल के राजा किया करती थी। जहाँ कोयतूरों का अपना कानून, नियम, रीतिरिवाज, परंपरा हुआ करता था, जिसके अनुसार जल जंगल जमीन कोयतूर समाज का है, कोई निजी या सरकार का यहाँ संपत्ति नहीं है।
अंग्रेजों की सरकार कबीलों से जल जंगल जमीन छीनना चाहती थी व उनकी आजादी और उनकी सत्ता छीनना चाहते थे।
भूगोल की किताब के अनुसार सभी जनजातियों ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह 1757 में शुरू किया ।
अंग्रेजों की सरकार, जनजातियों को अपराधी साबित करने में तुली हुई थी, इसलिए इसे चोर चूहाड़ लाइन पर चूहाड़ विद्रोह कहा गया और तब से इसे चुआड़ विद्रोह कहा जाता है।


इसी क्रम को जारी रखते हुए, बंगाल, बिहार में बाउल फकीर विद्रोह फूट पडा, जिसमें जनजातियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन बाद में इसे संन्यासी विद्रोह कहा गया।
चुआड़ विद्रोह, संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह से पहले भील विद्रोह, बाउल विद्रोह और नील विद्रोह के समय शिक्षित आर्य अंग्रेजों के साथ और कबीलों के खिलाफ थे।
भील विद्रोह, संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह, गोंडवाना विद्रोह से लेकर आज तक कोयतूर जल, जंगल, जमीन के युद्ध में किसिन विद्रोह का नेतृत्व करते हुए शहादत देते रहे हैं। जबकि गैर-आदिवासी शिक्षित लोगों ने 20वीं शताब्दी की शुरुआत तक जमींदारी के पतन तक ब्रिटिश शासन का समर्थन किया।
मुंडा, भील और संथाल के विद्रोहों की चर्चा की गई है। लेकिन बाउल फकीर सन्यासी विद्रोह, चुआड़ विद्रोह और नील विद्रोह में जनजातियों की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष हमारे इतिहास में दर्ज नहीं है।
भील, किसिन आंदोलनों, तूतीमर, चुआड, संथाल, गोंडवाना विद्रोह से लेकर बाउल फकीर संन्यासी, नील विद्रोह और 1857 की क्रांति तक कोयतूरों की नेतृत्व भूमिका पर प्रामाणिक लेख आप के द्वारा कोया पूनम गोंडवाना वेबसाईट को आमंत्रित हैं।
कोयतूरों का इतिहास हमारा इतिहास है।