बिरसा मुंडा का जीवन परिचय निम्नलिखित:-
1.परिचय
2.उपाधि
3.स्मृति
4.विद्रोह
5.आरंभिक जीवन
6.बिरसाइत धर्म की स्थापना
7.मुंडा विद्रोह का नेतृत्व
8.विद्रोह में भागीदारी
9.संथाल विद्रोह
10.ईसाई मिशनरियोंके धर्मान्तरणका विरोध
11.अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तारी
12.अन्तिम साँस


🏹 क्रांतीसुर्य – बिरसा मुंडा 🏹
एक अधूरा सपना (अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज)
जन्म :- 15 नवंबर 1875
शहीद :- 9 जून 1900
माता :- सुगना मुंडा
पिता :- करमी हातू मुंडा
गाँव :- मेंराँची का उलीहातू गाँव
जन्मस्थल :- खूँटी झारखंड
मृत्युस्थल :- राँची झारखंड
आन्दोलन :- भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
उनकी उपाधी :-
१. क्रांतीसुर्य
२. धरतीआबा
३. भगवान
उनकी स्मृति :-
१. बिरसा मुंडा केन्द्रीय कारागार राँची
२. बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा राँची
उनका विद्रोह :-
१. संथाल विद्रोह
२. कोल विद्रोह
३. गोंड विद्रोह
४. खासी विद्रोह
➡️जनजाति जननायक बिरसा मुंडा 19वीं सदी के एक प्रमुख जनजाति जननायक थे। उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन उलगुलान को अंजाम दिया। बिरसा को मुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं।
➡️आरंभिक जीवन :-
सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखंड प्रदेश मेंराँची के उलीहातू गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आये। इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया।
कोलेज स्कुली वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे। उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे। लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बल्की ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा। उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया। फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए।
1886 से 1890 तक बिरसा का चाईबासा मिशन के साथ रहना उनके व्यक्तित्व का निर्माण काल था, यही वह दौर था जिसने बिरसा मुंडा के अंदर बदले और स्वाभिमान की ज्वाला पैदा कर दी. बिरसा मुंडा पर संथाल विद्रोह, चुआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे. 1894 में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।
➡️बिरसाइत धर्म की स्थापना :-
गांधी से पहले गांधी की अवधारणा के तत्व के उभार के पीछे भी बिरसा का समाज एवं पड़ोस के सूक्ष्म अवलोकन एवं उसे नयी अंतर्दृष्टि देने का तत्व ही था। तभी तो उन्होंने गांधी के समान समस्याओं को देखा-सुना, फिर चिंतन-मनन किया। उनका मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का प्रयास अंग्रेजी हुकूमत के लिए विकराल चुनौती बना। उन्होंने नए बिरसाइत धर्म की स्थापना की तथा लोगों को नई सोच दी, जिसका आधार सात्विकता, आध्यात्मिकता, परस्पर सहयोग, एकता व बंधुता था। उन्होंने ‘गोरो वापस जाओ’ का नारा दिया एवं परंपरागत लोकतंत्र की स्थापना पर बल दिया, ताकि शोषणमुक्त ‘आदिम साम्यवाद’ की स्थापना हो सके। उन्होंने कहा था- ‘महारानी राज’ जाएगा एवं ‘अबुआ राज’ आएगा. बिरसा के द्वारा स्थापित बिरसाइत पंथ आज भी कायम है।
खूंटी जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर जंगल के बीच बिरसाइतों का गांव है अनिगड़ा। कभी इस गांव में बिरसाइतों की काफी संख्या थी। अब ये नाममात्र के रह गए हैं। ये अपनी गरीबी से अधिक सरकारी उपेक्षा से दुखी हैं। ज्ञातव्य है कि यदि अंग्रेजों ने शोषण किया तो आजाद भारत की सरकार ने भी इनके साथ कम धोखा नहीं किया है। आजादी के बाद भी मुंडाओं को लगान-सूद से मुक्ति नहीं मिली तथा जल, जंगल, जमीन पर अधिकार नहीं मिला। ‘अबुआ दिशुम’ का सपना अभी तक पूरा नहीं हुआ है।
➡️मुंडा विद्रोह का नेतृत्व :-
1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती आबा” के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।


➡️विद्रोह में भागीदारी :-
बिरसा मुण्डा का राँची स्थित स्टेच्यू 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।
➡️संथाल विद्रोह :-
राम दयाल मुंडा के अनुसार ब्रिटिश शासन को रेलवे के लिए संथाल क्षेत्र चाहिए था। इसके अलावा उन्हें राजस्व का भी लोभ था। जंगलों को साफ कर खेत बनाने पर जोर दिया जा रहा था। ऐसा करने के लिए प्रोत्साहन भी दिया जा रहा था। आदिवासियों के लिए पहाड़ी क्षेत्र में जो भी भूमि थी, फल फूल थे, वे उसी के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। राम दयाल मुंडा का मानना है कि मैदानी भारत एक तरह से समर्पण करता गया वहीं पहाड़ों में विरोध होता रहा। अंग्रेज आमने सामने की लड़ाई में भले ही शक्तिशाली थे मगर गुरिल्ला युद्ध के लिए वे तैयार नहीं थे और न ही उनकी सेना में ऐसे युद्ध के लिए कोई इकाई थी। बहरहाल वे किसी प्रकार आंदोलन को कुचलने में सफल रहे।
वर्ष 1855 में बंगाल के मुर्शिदाबाद तथा बिहार के भागलपुर जिलों में स्थानीय जमीनदार, महाजन और अंग्रेज कर्मचारियों के अन्याय अत्याचार के शिकार संथाली जनता ने एकबद्ध होकर उनके विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था। इसे संथाल विद्रोह या संथाल हुल कहते हैं। संताली भाषा में ‘हूल’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘विद्रोह’। यह उनके विरुद्ध प्रथम सशस्त्र जनसंग्राम था। सिधु, कानु और चाँद इस आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले प्रमुख नेता थे। 1852 में लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा आरम्भ किए गए स्थाई बन्दोबस्त के कारण जनता के ऊपर बढ़े हुए अत्याचार इस विद्रोह का एक प्रमुख कारण था।
➡️ईसाई मिशनरियोंके धर्मान्तरणका विरोध :-
बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है. उन्होंने आदिवासियों को एकजुट कर उन्हें अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया. इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय आदिवासी संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया. ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले आदिवसियोको उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया ।
➡️अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तारी:-
जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। 3 फरवरी 1900 को सेंतरा के पश्चिम जंगल में बने शिविर से बिरसा को गिरफ्तार कर उन्हें तत्काल रांची कारागार में बंद कर दिया गया। बिरसा के साथ अन्य 482 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया। उनके खिलाफ 15 आरोप दर्ज किए गए। शेष अन्य गिरफ्तार लोगों में सिर्फ 98 के खिलाफ आरोप सिध्द हो पाया। बिरसा के विश्वासी गया मुंडा और उनके पुत्र सानरे मुंडा को फांसी दी गई। गया मुंडा की पत्नी मांकी को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा दी गई।


➡️अन्तिम साँस :-
मुकदमे की सुनवाई के शुरुआती दौर में उन्होंने जेल में भोजन करने के प्रति अनिच्छा जाहिर की। अदालत में तबियत खराब होने की वजह से जेल वापस भेज दिया गया। 1 जून को जेल अस्पताल के चिकित्सक ने सूचना दी कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनके जीवित रहने की संभावना नहीं है। 9 जून 1900 की सुबह सूचना दी गई कि बिरसा नहीं रहे यही उनकी अंतिम सांस रही। इस तरह एक क्रातिकारी जीवन का अंत हो गया। बिरसा के संघर्ष के परिणामस्वरूप छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 बना।
जल, जंगल और जमीन पर पारंपरिक अधिकार की रक्षा के लिए शुरु हुए आंदोलन एक के बाद एक श्रृंखला में गतिमान रहे तथा इसकी परिणति अलग झारखंड राय के रूप में हुई। आजादी के बाद औद्योगिकीकरण के दौर ने उस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया जिसकी स्थापना के लिए बिरसा का उलगुलान था। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है. अपने पच्चीस साल के छोटे जीवन में ही उन्होंने जो क्रांति पैदा की वह अतुलनीय है. बिरसा मुंडा धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे ।
➡️बिरसा मुण्डा की समाधी :-
बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी है। राम दयाल मुंडा के अनुसार बिरसा के देहांत के बाद काफी असर हुआ और रैयतों के हित में कानून बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। बाद में छोटानागपुर टेनेंसी कानून बना। झारखंड में काफी बड़ी संख्या में लोगों का बिरसा के साथ भावनात्मक लगाव है और उनके जन्मदिवस 15 नवंबर के मौके पर झारखंड राज्य का गठन हुआ। उनके अनुसार बिरसा ने जिन मुद्दों को लेकर संघर्ष किया, उसकी प्रासंगिकता अब भी बरकरार है।
➡️अधुरा सपना – अबुआ: दिशोम:- ”अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज”
(अर्थात हमारे देश में हमारा शासन) का नारा देकर भारत वर्ष के छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासी नेता भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों की हुकुमत के सामने कभी घुटने नहीं टेके, सर नहीं झुकाया बल्कि जल, जंगल और जमीन के हक के लिए अंग्रेजी के खिलाफ ‘उलगुलान’ अर्थात क्रांति का आह्वान किया…….।
अबुआदिशोमरेअबुआराज यह ऊलगुलान जारी रहें ।।
यह धरती हमारी हैंं तो राज भी हमारा ही होगा ।।
🙏💐जननायक भगवान बिरसा मुण्डा अमर रहे💐🙏
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