

वर्तमान में कवर्धा जिला में सल्ले टेकरी पर्वत श्रृंखला की तलहटी में स्थित भोरमदेव गढ़, जो गोंड समुदाय के राजाओं का शहर था, यहाँ ‘नाग गण्ड’ चिन्ह धारक समुदाय राज करते थे। प्राचीन काल में इस क्षेत्र को कवधूरागढ़ कहा जाता था। गोंडी गण्ड गाथा में कवधूरागढ़ के बारे में जिक्र है। कवधूरागढ़ में अपना राज्य स्थापित करने वाले पहले राजा भोरमदेव हैं, जो गढ़ मंडला के ‘नाग गण्ड’ चिन्ह धारक उईका गोत्र नागदेव राजा के भाई थे। इस संबंध में जानकारी का उल्लेख गढ़ वीरो की गाथा में मिलता है, इसके अनुसार गढ़ मंडला के राजा ‘पोल सिंह’ के तीन पुत्र हुए व पिता की सहमति से तीनों भाइयों ने अपने राज्य को तीन भागों में बांट दिया। प्रथम नागदेवगढ़ मंडला में… दूसरा धुरदेव पाचालगढ़ में और तीसरा भोरमदेव कवधूरागढ़ में है। आज उसे कवर्धा कहा जाता है जिसका प्राचीन नाम कवधूरागढ़ था। राजधानी कवधूरागढ़ के राजा भोरमदेव थे जिनके नाम से आज इस शहर का भोरमदेव गढ़ पड़ा हैं ।


भोरमदेव गढ़ किले में छवरी महल, छेरकी महल, खण्डवा महल और मण्डवा महल के आलावा भोरमदेव नामक शंभु गवरा का पेनठाना है। राजा और उस क्षेत्र के लोग पंच खण्ड धरती के राजा शंभु महादेव के उपासक थे। लोगों का कहना है कि भोरमदेव गढ़ के राजा गोंड समुदाय के थे, लेकिन कुछ इतिहासकार इसे मानने को तैयार नहीं हैं। इतिहासकार इसे ‘नागवंसी’ राजाओं का मानते है लेकिन ‘नाग गण्ड’ चिन्ह धारक राजा गोंड समुदाय में होते है। वास्तविकता यह है कि वे गोंडवाना क्षेत्र में कटचुरी (कलचुरी) कछवा, शरभपुडी, नाग, पाण्डू, गंग, नल आदि के राजा गोंड समुदाय के थे। जो अपने गण्ड चिन्ह के नाम से जाने जाते थे। उपरोक्त सभी नाम गोंडी भाषा में और जीवों के नाम से है।
राजा ने अपने राज्य में सभी धर्मियों को शरण प्रदान की थी जिसकी झलक उनके द्वारा निर्मित पेनठाना में दिखाई देती है और धार्मिक सहिष्णुता का परिचय वास्तुकला से मिलता है। नाग, ईन, गंग, कछुवा, हैयय, नल, शरभपुडी, पाण्डू आदि प्रतीक चिन्ह के आधार पर राजाओं के बीच विवाह संबंध स्थापित करने की प्राचीन परंपरा थी। सम-विषम गण्ड चिन्ह परिवारों के बीच में विवाह संबंध स्थापित होता था।




भोरमदेव गढ़ में शंभु महादेव पेनठाना की स्थापना कैसे हुई?
इसकी पृष्ठभूमि उस क्षेत्र में रहने वाले गोंड समुदाय का पौराणिक गाथा में प्रचलित है। भोरमदेव राजा के वंशजों का राज्य कवधूरागढ़ के क्षेत्र पूर्ववासी में था। वहां से राजा राज्य चलता था। वहीँ 9वीं शताब्दी के दौरान पूर्ववासी के राजा अहिराज पन्नासिंह मैकाल पर्वत पर सालेटेकडी में शिकार करने गए। एक स्थान जहाँ जातुकर्ण गुणिया की मढ़िया और उसका सिद्धि स्थल था। जातुकर्ण गुणिया के दो पुत्र और एक लड़की थी। वह अपने बच्चों के साथ हर दिन आयुर्वेदिक दवाओं की तलाश में घाटियों और जंगलों में जाती थी।
एक दिन जंगल में घूमते हुए पूर्ववासी के गोंड राजा अहिराज पन्नासिंह ने मिथलाई को देखा। मिथलाई जातुकर्ण गुणिया की पुत्री थी। पहली मुलाकात में मिथलाई के रूप देख कर राजा मोहित हो गए। राजा हर दिन एकांत में उनसे मिलने जाया करते थे, क्योंकि उनमें बीच प्रेम की धारा तेज हो गई थी। प्रणय (मिलन) को विवाह में परिवर्तन के बारे में चर्चा हुई और राजा अहिराज पन्नासिंह ने मिथलाई से विवाह करने के लिए जातुकर्ण गुणिया से अनुरोध किया जिससे जातुकर्ण असहमत थी। फिर राजा पन्नासिंह और मिथलाई ने शंभु महादेव का गोंगो किया और घोर तपस्या की, यह देखकर कि जातुकर्ण गुणिया का मन बदल गाया और शादी करने की अनुमति दे दी। विवाह के बाद अहिराज पन्नासिंह ने शंभु महादेव की स्थापना के लिए मैकाल पर्वत की श्रंखला में वृत्ताकार क्षेत्र को चुना और पेनठाना निर्णय करने लगे। उन्होंने उसका नाम अपने पूर्वजों के नाम पर भोरमदेव रखा। विभिन्न चरणों में भोरमदेव पेनठाना का निर्माण कार्य किया गया ।
गोंडवाना के महाकोसल परगना को खजुराहो के नाम से भी जाना जाता है। शंभु महादेव गोंड समुदाय के पंच खंड के स्वामी थे।
भोरमदेव के पास शंभु महादेव की अधिकांश मूर्तियाँ और उनके गणों की हैं। मंदिर में तीन दिशाओं में तीन प्रवेश द्वार हैं। जहाँ सोपानों के माध्यम से गर्भगृह में प्रवेश किया जाता है… गर्भगृह का प्रवेश द्वार बहुत अलंकृत है।
कोया वंश के गोंड समुदाय की धार्मिक मान्यता के अनुसार भोरमदेव का पेनठाना आज भी आराध्य है। यहाँ शंभू नरका पर्व में महामेला लगता है। इसके पास एक बुढ़ाताल है…भोरमदेव गढ़ के मण्डवा महल में राजा, छेरकी महल में रानी, छोरा महल में राजकुमार और छपरी महल में राजकुमार रहती थी।
‘नाग गण्ड’ चिन्ह धारक गोंड राजाओं का अनोखा गढ़ जिसे आज भोरमदेव के पेनठाना के नाम से जाना जाता है।
श्रेय लेखक – पेनवासी डॉ. आचार्य मोतीरावण कंगाली जी
संकलक कर्ता – अशोक आडे