Bhima-Koregaon-Victory-Pillar
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हर साल, जब लोग आदतन नए साल का जश्न मनाते हैं उस वक्त 1 जनवरी को समाज का एक हिस्सा दलितों के आत्मसम्मान और संघर्ष को एक नई दिशा प्राप्त करता है। यह भीमा कोरेगांव व शौर्य दिवस के नाम से प्रसिद्ध है। 1 जनवरी, 1818 को, महाराष्ट्र में ब्रिटिश सेना के साथ मिलकर 500 महारों की सेना ने मराठा पेशवाओं को हराया जिनमे 20,000 से अधिक सैनिकों की संख्या थी और उन्हें भागने के लिए मजबूर कर किया। बाद में, 1851 में, इस युद्ध में मारे गए सैनिकों की याद में, अंग्रेजों ने यहां एक “स्तंभ” बनवाया जिसमें अधिकांश महार सैनिकों के नाम थे। मुख्यधारा का इतिहास अभी भी इस प्रमुख इतिहास को अनदेखा कर रहा है।

1 जनवरी, 1927 को डॉ० बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने अपने साथियों के साथ मिलकर महार सैनिकों को याद दिलाया जिन्होंने भयंकर जातिवादी और प्रतिकियावादी पेशवाओं की सेना को हराकर और दलितों ने अपना आत्म-सम्मान बढ़ाकर कई जातिगत मिथकों को तोड़ा है। (शायद यहाँ से प्रेरित होकर डॉ०अम्बेडकर ने 1926 में ‘समता सैनिक दल’ की स्थापना की) तब से, हर साल यहाँ हज़ारों लोग इकट्ठा होते हैं। दलित आंदोलन और लोकतंत्र के संघर्ष से जुड़े लोग यहां आते हैं और कई कार्यक्रम करते हैं। जाति व्यवस्था को समाप्त करने की संकल्प लेते है।

“मुख्यधारा” “मुख्यधारा” के इतिहासकारों के अनुसार, महारों ने भीमा कोरेगाँव की यह लड़ाई अंग्रेजों के नेतृत्व में लड़ी थी, इसलिए इसे इतिहास में एक प्रगतिशील कदम कैसे कहा जा सकता है? अपने रुख के कारण, उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान डॉ० अंबेडकर (विशेषकर ‘माक्सवादी’ इतिहासकार) की भूमि पर भी सवाल उठाया। मुख्यधारा और आंतरिक हलकों के ब्राह्मण उन्हें अंग्रेजों के दलाल कहते है।

इस महत्वपूर्ण से मिलती जुलती विश्व इतिहास की घटना पर नजर डाले । भीम कोरेगांव की घटना के ठीक 42 साल पहले 4 जुलाई 1776 को अमेरिका, इंग्लैंड के खिलाफ लडकर स्वतंत्र हुआ । ‘जार्ज वाशिंगटन’ और ‘जेफरसन’ के नेतृत्व में लडे गये इस ‘अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम’ में वहां के काले गुलाम अफ़्रीकी लोग और वहां के मूल निवासी किसके पक्ष में लड़े थे ? यह आपको आश्चर्यचकित कर सकता है, लेकिन यह सच है कि उनमें से ज्यादातर इंग्लैंड के लिए जॉर्ज वाशिंगटन की सेना से लड़ रहे थे। 4 जुलाई 1776 के बाद का इतिहास यह दिखाता है की उनका निर्णय सही था । (‘स्टेच्यू आफॅ लिबर्टी’ काले लोगों की गुलामी से जगमगा रही थी) स्वयं जार्ज वाशिंगटन और जेफरसन के पास सैकड़ों की संख्या में काले गुलाम उनकी निजी सम्पत्ति के रूप में मौजूद थे ।

2014 में अमरीका के मशहूर इतिहासकार ‘गेराल्ड होर्ने’ (Gerald Horne) ने इसी विषय पर एक विचारोत्तेजन किताब लिखी – The Counter – Revolution of 1776 । इसमें उन्होंने विस्तार से अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वहां के काले गुलामों और गोरे अमरीकियों के बीच के ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ की चर्चा की, जिससे वहां के मुख्यधारा के गोरे इतिहासकार नजर चुराते रहे हैं । इस रूपक को मान के, अगर हम इसे तत्कालीन भारत में लागू करते हैं, तो कुछ आश्चर्यजनक समानताएं दिखती हैं। यहाँ दलितों का ‘शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध’ (विशेष रूप से ‘अछूत’) यहाँ उच्च ब्राह्मणवादी वर्णों के साथ होगा या जो बाहर से आए थे, जो कम से कम छुआ छूत का उपयोग नहीं करते थे, और जिन्होंने शिवसेना के बाद सबसे पहले महारों को अपनी सेना में प्रवेश दिया। इतिहास स्थापित सूत्रों से नहीं, बल्कि उनके उद्देश्य अन्तरविरोधों से शुरू होता है।

‘देशी’ पेशवाओं और ‘बाहरी’ अंग्रेजों के बीच की लड़ाई में, वे किस तर्क के साथ पेशवाओं का समर्थन करेंगे? इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए, आइए इतिहास की एक और महत्वपूर्ण घटना लेते हैं। 410 ईवी० में जब जर्मन जनजातियों ने रोम पर एक भयानक हमला किया, तो रोम के दासों ने अपने दास मालिकों का समर्थन नहीं किया और जर्मन जनजातियों के साथ मिलकर रोम की नींव हिला दी। क्या वह रोम के गुलामों की गद्दारी थी? इसे आप स्वयं तय करे। इस समय गुलामों की स्थिति क्या थी, यह जानने के लिए आप हॉवर्ड फास्ट के प्रसिद्ध कृति ‘स्पार्टकस’ को पढ़ सकते हैं।

महारों की सेना द्वारा पेशवाओं की सेना पर इस विजय के महत्त्व को हम तभी अच्छी तरह समझ सकते है जब हम पेशवाओं के राज्य में महारों की क्या स्तिथि थी जानेगे । पेशवा के राज्य में, महारों को अनिवार्य रूप से सार्वजनिक स्थानों पर बाहर निकलने से पहले अपनी गर्दन और पीठ पर झाड़ू बांधना पड़ता था। ताकि उनके कदम अपने आप ही गायब होते रहें और उनकी लार सार्वजनिक स्थानों पर न गिरे ताकि सार्वजनिक स्थान ‘दूषित’ न हो । अपनी इसी स्तिथि के कारण महारों के दिलो-दिमाग में ब्राह्मणों और तथाकथित ऊची जातियों के प्रति सदियों से जो नफरत ने उन्हें वह ताकत दी जिससे वे अपने से संख्या में कही ज्यादा पेशवाहों की सेना को वापस भागने पर मजबूत कर दिया । इस युद्ध ने वर्ण व्यवस्था के मिथक को भी दूर कर दिया कि यह एक ही जाति में लड़ने की क्षमता है। सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त ‘इतिहासकार’ ने इस घटना को नजर अंदाज किया इसे समझने की जरुरत है ।

1688 की ‘गौरवपूर्ण क्रांति’ ने गुलामों के व्यापर को अंग्रेज व्यापारियों के लिए मुक्त कर दिया । इसके पहले गुलाम व्यापर पर सिर्फ राजा का अधिकार होता था और यह सिमित था । इसके फलस्वरूप अफ्रीका से गुलामों का व्यापार सैकड़ों गुना बढ़ गया और उन्हें जहाजों में ठूस ठूस कर अटलांटिक सागर के दोनों ओर गुलामी के लिए भेजा जाने लगा । उन गुलामों की नजर से देखिये तो उनके इस ‘गौरवपूर्ण क्रांति’ में गौरवपूर्ण क्या था ?

पुन: भारत वापस आया। यहां जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म का एक अनिवार्य हिस्सा है। वास्तव में, हिंदू धर्म, धर्म नहीं है जिस तरह ईसाई या मुस्लिम धर्म हैं। इसमें एक भी ईश्वर नहीं है, बाइबिल या कुरान जैसी एक भी किताब नहीं है, और जैसा कि अम्बेडकर सटीक रूप से बताते हैं, हिन्दू धर्म में केवल एक चीज है जो सभी हिन्दूओं को एकजुट करती है, और वह है उनकी जाति व्यवस्था ।

सभी हिन्दू अनिवार्य रूप से मानते हैं। इस जाति व्यवस्था के निचले हिस्से में ‘अछूत’ हैं, शेष जातियां जिनकी छाया से भी बचती है और वे वर्ण व्यवस्था के बाहर भी हैं। अछूतो का हिन्दू मंदिरों और हिन्दू अनुष्ठानों में प्रवेश वर्जित है। इस रूप में यह दुनिया का पहला और प्रवेश वर्जित है । इस रूप में यह दुनिया का पहला और निश्चित रूप से आखरी धर्म है जो अपने ही एक समुदाय की ईश्वर तक पहुंच को सचेत तरीके से रोक देता है ।

ज्योति बा फुले की शिष्या ‘मुक्ता साल्वे’ ने 1885 में लिखे अपने एक लेख में इस तर्क को बहुत असरदार तरीके से रखा है –   “यदि केवल ब्राह्मणों को वेद पर अधिकार है, तो यह स्पष्ट है कि वेद हमारी पुस्तक नहीं है”। हमारे पास कोई पुस्तक नहीं है, हमारा कोई धर्म नहीं है। यदि वेद केवल ब्राह्मणों के लिए हैं, तो हम वेदों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं। यदि हमें वेदों को देखना हमारे लिये भयानक पाप (जैसा कि ब्राह्मण करते हैं) है, क्या उसका पालन करना मूर्खता नहीं है? मुसलमान कुरान के अनुसार अपना जीवन जीते हैं, अंग्रेज बाइबिल का पालन करते हैं और ब्राह्मणों का अपना वेद है। जैसा कि उनका अपना धर्म है। अच्छा या बुरा, वे हमसे ज्यादा खुश हैं।

हमारा अपना कोया पुनेमी गोंडी धर्म है। इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए, डॉ० अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को एक अमानवीय धर्म कहा है। अगर हम इसकी तुलना ईसाई धर्म से करते हैं, तो हम पाते हैं कि वे जहाँ भी गए, उन्होंने अपने धर्म के निवासियों को जोड़ने की कोशिश की। उनके सभी धार्मिक समारोहों ने उन्हें उनके पूजा स्थलों में शामिल किया और उन्हें उनके भगवान के साथ जोड़ा। हालांकि यह कहने की जरुरत नहीं है कि इसमें उनके अपने राजनीतिक व आर्थिक हित जुड़े होते थे (इस प्रक्रिया को क्यूबा में 1975 में बनी मशहूर फिल्म ‘दि लास्ट सफर’में बहुत शानदार तरीके से दिखाया गया है) । लेकिन इसके बावजूद हिन्दू धर्म से उनका रणनीतिक अन्तर बहुत साफ है । यदि हम ‘अछूतों’ की आर्थिक हैसियत की बात करें तो यह बात साफ है कि उनके पास अपनी व्यक्तिगत चीजों के आलावा कोई संपत्ति नहीं होती थी ।

वास्तव में ‘अछूतों’ के लिए संतत्ति रखना धार्मिक तौर पर मना था यानी हिन्दू धर्म में ही ऐसा सम्भव है जहाँ समाज के एक समुदाय ‘अछूत’ को न सिर्फ आर्थिक तौर पर गरीब रखा जाता है वरन धर्म व ईश्वर से वंचित रखकर उसकी ‘आध्यात्मिक संपत्ति’ भी छीन ली जाती है । धर्म पर इतनी बात इसलिए जरुरी है क्योंकि हम समाज में मौजूद वर्गीय अन्तर विरोधों को तो पकड़ लेते है, लेकिन धर्म के अन्दर या धर्म के आवरण में मौजूद अन्तर विरोधों को नहीं देख पाते या उसे नजरअंदाज कर देते है । जाति उन्मूलन पर लिखे अपने क्रन्तिकारी दस्तावेज ‘जातिभेद का उच्छेद’ में अम्बेडकर हिन्दू धर्म की तमाम कुटिलताओं – शब्दाडम्बरों को भेदकर उनके भीतर या उनके आवरण में मौजूद उस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध को सामने लाते है जिस पर अब तक पर्दा पड़ा हुआ था । इस अति महत्वपूर्ण किताब के माध्यम से अम्बेडकर ने समूचे दलित समुदाय को हिन्दू धर्म से बहार खींचकर उन्हें मानसिक गुलामी से आजाद कर दिया और उन्हें स्वतंत्र वैचारिक जमीन मुहैया करायी, जिस पर भावी दलित आन्दोलन की नींव राखी जानी थी । इसी किताब में निष्कर्ष के रूप में अम्बेडकर ने यह साफ कर दिया की इस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध ( अम्बेडकर ने ‘शत्रुतापूर्ण अन्तर विरोध’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, लेकिन उनका मतलब यही है ।) को बनाये रखते हुए समाज का जनवादीकारण करना या/और राष्ट्र निर्माण करना असम्भव है ।

डॉ०अम्बेडकर के शब्दों में – ‘जातिप्रथा की नींव पर किसी भी प्रकार का निर्माण संभव नहीं है’ । इसीलिए कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे ‘आजादी’ के आन्दोलन को वे उचित ही शक की निगाह से देख रहे थे । उन्होंने साफ साफ कहा – ‘प्रत्येक कांग्रेसी को जो बराबरी का यह सिद्धांत बार-बार दुहराता है कि एक देश को दुसरे देश पर राज करने का अधिकार नहीं है, उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दुसरे वर्ग पर राज करने के योग्य नहीं है’ । कोंग्रेस और गांधी को राट्रीय आन्दोलन का पर्याय बताने वाले इतिहासकार यह बताना भूल जाते हैं कि गांधी आजीवन वर्ण व्यवस्था और प्रकारान्तर से जाति व्यवस्था के समर्थक बने रहे । यही कारण है गांधी ने खुलेआम ऐलान किया कि अम्बेडकर हिन्दुत्व के लिए चुनौती हैं । दरअसल कांग्रेस में तिलक के आने के बाद से ही कांग्रेसी नेतृत्व निरन्तर रुढ़िवादी और साम्प्रदायिक होता गया है । ‘पंडित नेहरू इसके अपवाद नहीं थे, लेकिन यह एक भड़कीला पर्दा था, जो कांग्रेस के असली चेहरे को उजागर करता था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और उसके बाद कांग्रेस को उसके नग्न रूप में कितना फासीवाद दिखाई देता है, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए।  

नामदेव धसाल की एक शानदार कविता –

सूरज की ओर पीठ किये, वे शताब्दियों तक यात्रा करते रहे, अब, अधिंयारे की और यह यात्रा हमे बन्द करनी चाहिए और यह की इस अंधेरे को ढोते ढोते हमारे पिता अब झुक गये हैं, अब, हमें उस बोझ को उनकी पीठ से हटाना होगा, इस वैभवशाली शहर को बनाने में हमारा खून बहा है, इसके बदले में हमे केवल पत्थर खाने को मिले हैं, अब, इस गगन चुम्बी इमारत को हमें उड़ना होगा, हजारों सैलून के बाद हमें एक सूरजमुखी फूल देने वाला फ़क़ीर मिला है, अब, सूरजमुखी के फूल की तरह हमें अपना चेहरा,सूरज की और कर लेना चाहिए ।


1 जनवरी 1948 और 2 जनवरी काला दिवस | खरसावां गोलीकांड

वीर झाड़ा सिरहा | 1876 मुरिया विद्रोह

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