

वीर योद्धा बाबूलाल पुलेश्वर शोडमाके जी का जीवन परिचय:-
3.अंग्रेजो के खिलाफ सेना तैयार करना
4.अंग्रजो के विरुद्ध युद्ध की घोषणा
5.अंग्रेजो के किलाफ़ व्यंकटराव राजेश्वर राजगोंड का साथ
6.बुआ रानी लक्ष्मीबाई के माध्यम से वीर बाबुराव को पकड़ने की साजिश
बाबूलाल शोडमाके जी का बचपन
वीर बाबूलाल शोडमेक का जन्म 12 मार्च, 1833 को मोल्लमपल्ली (अहेरी) में श्रीमंत शोडमाके ज़मींनदार के यहाँ हुआ था, उनकी माँ का नाम जुरजायाल (जुरजाकुवंर) था। बाबूलाल को 3 साल की उम्र में गोटुल में डाल दिया गया था, जहाँ उसे मल्ल युद्ध, तीरकमठा और भाला तलवार के बारे में प्रशिक्षण दिया गया। वह अपने साथियों के साथ जंगल में शिकार करने जाते थे और शास्त्र चलने का अभ्यास भी कराया जाता था। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा के लिए ब्रिटिश एजुकेशन सेंट्रल इंग्लिश मीडियम रायपुर, (छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश) में अपनी पढ़ाई पूरी की और मोलामपल्ली लौट गए। उम्र बड़ने के साथ, उन्होंने उन्हें सामाजिक नीति मूल्य भी सिखाए गये।
पारिवारिक जीवन की शुरुआत
धीरे धीरे करके, उन्होंने अपनी जमींदारी के गाँवों के लोगों से संपर्क करना शुरू किया, जिससे साहूकार और ठेकेदारों द्वारा आम जनता पर किए गए अत्याचारों के बारे में पता चला था। साथ ही, अंग्रेजों के आने के बाद, उन्हें अपने लोगो के ऊपर हुए अत्याचार की जानकारी भी मिली। जससे उनकी समझ बढ़ी। राजपरिवार से होने के बावजूद, उनमें समाज के प्रति समर्पण का भाव अधिक था, जमींदारी का नहीं, लेकिन समय के साथ वे अधिक परिपकव हो गए। उनका विवाह आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले में चेन्नई के मांडवी राज परिवार की बेटी ‘राजकुँवर’ से हुआ था। वह बाबूलाल के काम के प्रति समान रूप से समर्पित थी।


अंग्रेजो के खिलाफ सेना तैयार करना
उस समय चांदागढ़ और उसके आस-पास गोंडी धर्म के लोग संख्या अधिक थी क्योंकि इस क्षेत्र में गोंड, परधान, हल्बी, नगची, माडीया कोयतूरो की संख्या अधिक था । 18 दिसंबर 1854 को चांदागढ़ पर आर. एस .एलिस को जिलाधिकारी नियुक्त किया गया और अंग्रेजो द्वारा गरीबों पर जुल्म ढाने की शुरुआत हो गई । क्रिशचन मिशनरी के द्वारा भोले भले कोयतुरो को विकास के नाम पर उनका धर्म परिवर्तन करा कर उन्हें छला जाता था । साथ ही यह क्षेत्र वनस्पति, खनिज संपदा से भरा हुआ था और अंग्रेजो को आपना कामकाज चलने के लिये इन संपदाओ की जरुरत थी इसलिए अंग्रेज कोयतूरो की जमिंनो पर जबरन कब्ज़ा कर रहे थे, ये बात बाबुराव को कतई पसंद नहीं थी । जमीन का हक़ कोयतूरो का है और वो उन्हें मिलना ही चाहिए । कोयतूरो को सामुदायिक जीवन पद्धति एवं सांस्कृतिक जीवन शैली में जीना पसंद है । इस तरह की चीजो ने उनके मन में विद्रोह की ज्वाला प्रज्ज्वलित कर दी और मरते दम तक अंग्रेजो के खिलाफ लड़कर अपने लोगो की रक्षा करने के लिए उन्होंने 24 सितम्बर 1857 को ‘जंगोम सेना’ की स्थापना की ।
अंग्रजो के विरुद्ध युद्ध की घोषणा
अडपल्ली, मोलमपल्ली, घोट और उसके आसपास की जमीनदारी से 400-500 कोयतुरो और रोहिलों की एक फौज बनाकर उन्हें विधिवत् प्रशिक्षण दिया और अंग्रजो के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए, उन्होंने चांदागढ़ से सटे राजगढ़ को चुना, राजगढ़ को अंग्रेजों ने रामशाह गेडाम को सौंप दिया। 7 मार्च, 1958 को, बाबूराव ने अपने साथियों के साथ राजगढ़ पर हमला किया और राजगढ़ के सभी क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। राजगढ़ का जमींदार रामजी गेडाम भी इस युद्ध में मारा गया, राज गढ़ में हुई हार से कैप्टिन डब्ल्यु ० एच ० क्रिक्टन परेशान हो गया और राजगढ़ को वापस पाने के लिये 13 मार्च 1858 को कैप्टिन क्रिक्टन ने अपनी फौज को बाबुराव की सेना को पकड़ने के लिए भेज दिया । बाबूराव और अंग्रेजों ने राजगढ़ से 4 किमी दूर नंदगाँव घोसरी के पास जमकर संघर्ष किया। इस युद्ध में कई लोग मारे गए और बाबूराव शोडमाके की जीत हुई।
अंग्रेजो के किलाफ़ व्यंकटराव राजेश्वर राजगोंड का साथ
राजगढ़ की लड़ाई के बाद अडपल्ली घोट के जमींदार व्यंकटराव राजेश्वर राजगोंड भी बाबुराव के साथ इस विद्रोह में आकर सम्मिलित हुए । जससे केप्टिन क्रिक्टन ओर परेशान हो गया । उसने अपनी फौज को बाबुराव और उसने साथियों के पीछे लगा दिया ,बाबुराव सतर्क थे उन्हें अंग्रेजो की गतिविधियों का अंदाजा था । वे जानते थे कि क्रिक्टन अपनी फौज को उन्हें खोजने के लिये जरुर भेजेगा, इसलिए वे गढिचुर्ला के पहाड़ पर पूरी तैयारी के साथ रुके हुए थे । जैसे ही अंग्रेजों को खबर मिली, 20 मार्च, 1858 को सुबह 4:30 बजे सेना ने पूरे पहाड़ को घेर लिया और गोलीबारी चालू कर दी। बाबुराव के सतर्क सैनिकों ने प्रहार करते हुए उन पर पत्थर बरसाये, इसमें अंग्रेजो के बंदूक की गोलियां ख़त्म हो गई पर पत्थरों की बारिश नहीं रुकी, कई अंग्रेज बुरी तरह से घायल हो गये और भाग गये । पहाड़ से नीचे उतर कर बाबुराव की जंगोम सेना ने वहा पडी बंदूके, तोपे जप्त कर ली और अनाज के कोठार को आम लोगों के लिए खोल दिया । इस तरह एक बार फिर से बाबुराव और उनके सैनिकों की जीत हुई ।
बाबूराव, व्यंकटराव और उसके साथियों के विद्रोह को समाप्त करने के लिए चिंतित कैप्टिन, फिर से चंद्रगढ़ से अंग्रेजी सैनिकों को भेजा। 19 अप्रैल 1858 को सगणापुर के पास बाबुराव के साथियों और अंग्रेजी फौज में घनघोर युद्ध हुआ जिसमें एक बार फिर अंग्रेजी फौज हर गई । इसके फलस्वरूप बाबुराव ने 29 अप्रैल 1858 को अहेरी जमींदारी के चिचगुडी की अंग्रेजी छावणी में हमला कर दिया । कई अंग्रेजी सैनिक घायल हो गए, जबकि टेलीग्राम ऑपरेटर गार्टल और उसके साथी मारे गए। उसका एक साथी, पीटर वहां से भागने में कामयाब रहा और उसने कैप्टिन क्रिक्टन के पास जाकर उसे बुलाया और सारी बाते बताई। इस हमले के बाद अंग्रेजी फौज में बाबुराव और व्यंकटराव की दह्शत बन गई । सारी योजनाएं विफल हो रही थी, दो –दो टेलीग्राम आपरेटर की मौत से केप्टिन क्रिक्टन आग बबूला हो गया था । इस घटना की जानकारी इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया को मिलते ही उसने बाबुराव को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने का फरमान जारी किया और बाबुराव शोडमाके को पकड़ने के लिये नागपुर के केप्टिन शेक्पियर को नियुक्त किया ।
बुआ रानी लक्ष्मीबाई के माध्यम से वीर बाबुराव को पकड़ने की साजिश
कैप्टिन शेक्पियर ने वीर बाबूराव, उनकी बुआ रानी लक्ष्मीबाई जो अहेरी की जमीदारी थी, को अपना माध्यम बनाया और बदले में, उन्होंने बाबूराव शोडमाके और व्यंकटराव राजेश्वर गोंड के 24 ज़मींदारी गाँवों में से 67 गाँवों को कुल 91 गाँव (इनाम) दिया जायेगा । उसने मना करने पर अहेरी की संपत्ति को जब्त करने की धमकी भी दी। रानी लक्ष्मीबाई को लुभाया गया और बाबुलराव को पकड़ने में अंग्रेजों का साथ दिया। बाबुराव अपने साथियों के साथ घोट गावं में पेरसापेन पूजा में आये हुए थे ,ये खबर ने अंग्रेजो तक पहुचाई और वे बाबुराव को पकड़ने के लिए घोट के पास पहुंचे । बाबुराव और अंग्रेजी फौज के बीच में घमासान युद्ध हुआ और एक बार फिर अंग्रेजी फौज उन्हें पकड़ने में नाकामियाब रही , और बाबुराव वहां से सही सलामत निकल गये । इस हार के बाद शेक्सपियर बौखला गया उसने घोट की जमींदारी पर कब्ज़ा कर लिया । इधर आचानक से हुए युद्ध में बाबुराव के कई साथी मरे गये,साथ ही आम लोग भी इसकी चपेट में आ गये । बाबूराव के आन्दोलन में कई अडचने आने लगी । उनके और उनके सहयोगियों की ज़मीनें ज़ब्त कर ली गईं। जंगोम की सेना व्यंकटराव जंगल में छिप गई और बाबूराव अकेला पड़ गए।
बाबुराव को फांसी की सजा
घोट में हुई हार के बाद अंग्रेजो ने रानी लक्ष्मीबाई ओर दबाव बनाया । रानी लक्ष्मीबाई को बाबुराव के अकेले पड़ने की खबर मिलते ही उसने बाबुराव को पकड़ने के लिए रोहिलों की सेना को भोपालपतनम भेज दिया , बाबुराव वहा कुछ दिन के लिये रुके हुए थे । रात को निंद में रोहिलों ने उन्हें पकड़ लिया उस वक्त बाबुराव ने उन्हें विरोध न करते हुए उन्हें अपने काम के उदेश को समझाया । और सही समय देखकर चुपके से वहा से निकल गये । बाबुराव लक्ष्मीबाई की सेना से बच निकलने की खबर केप्टिन को मिलते ही वो झल्ला गया । वावाराव अहेरी आ गये । इसकी जानकारी रानी लक्ष्मीबाई को मिलते ही उसने बाबुराव को अपने घर पर खाने का निमंत्रण दिया ।
वे निमंत्रण स्वीकार करने के बाद लक्ष्मीबाई के घर पहुंचे। जिसकी खबर लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों को दिया । जैसा कि उन्होंने खाया, अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई के घर को घेर लिया और बाबूराव को बंदी बना लिया।
बाबुराव को अंग्रेजो ने पकड़ लिया है ये बात व्यंकटराव तक पहुंची और वे बस्तर छत्तीसगढ़ चले गये । बाबुराव और उनके साथियों पर क्रिक्टन की अदालत में गार्टलड और हल की हत्या एवं अंग्रेज सरकार के खिलाफ करवाई करने का मुकदमा चलाया गया । उन्होंने अपने फैसले में बाबुराव को फांसी और उनके साथियों को 14 वर्ष कारावास का दण्ड सुनाया । 21अक्टूबर 1858 को बाबुराव को फांसी की सजा सुनाई गई , 21 तारीख को शाम 4 बजे चांदागढ़ राजमहल, जिसको जेल में परिवर्तित कर दिया गया था, वहां के पीपल के पेड़ पर उन्हें फांसी दी गई । उस वक्त केप्टिन क्रिक्टन उनके दायी ओर और केप्टिन शेक्सपियर बायीं ओर खड़े थे । बंदुको की सलामी के साथ दोनों केप्टिन ने भी सलामी दी । मृत्तु की जांच पड़ताल के बाद उन्हें जेल के परिसर में मिट्टी दी गई । जिस पीपल के पेड़ पर वीर बाबुराव को फांसी दी गई वो पेड़ आज भी चंद्रपुर की जेल में एतिहासिक विरासत के रूप में खड़ा है । हर साल 21 अक्टूबर को साडी जनता, समाज पीपल के पेड़ के पास एकत्रित होकर वीर बाबुराव को सम्मानपूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।


वीर बाबूराव शोडमाके के बारे में एक चौंकाने वाली घटना हमेशा सुनने में आती है कि उन्होंने एक बार ताड़ोबा के जंगल में ‘तड़वा’ नामक बांस के फल का सेवन किया था। वो फल बहुत जहरीला होता है और जो व्यक्ति उसे पाचन कर लेता है उसका शारीर वज्रदेही हो जाता है । बाबूराव ने उसका सेवन किया था, जिससे वह बेहोश हो गया था, लेकिन थोड़ी देर बाद उसे होश आया और उसके बाद उसके शरीर पर किसी भी तरह का कोई असर नहीं हुआ। उनमें एक अद्भूत शक्ति आ गयी थी । वे मीलों तक बिना थके तेजी से भाग सकते थे । लक्ष्मीबाई के घर जब अंग्रेंजों ने उन्हें पकड़ा तो प्रतिकार करने हेतु उन्होंने पानी पीने वाले लोटे को हतियार के रूप में प्रयोग किया और कई सैनिकों को घायल कर दिया जिसमें एक की मौत हो गई । जेल में जब उन्हें फांसी दी गयी तो उनका शरीर पत्थर कि तरह था और गर्दन भी सख्त हो गई थी, जिससे फांसी की रस्सी खुल गई । उन्हें फिर से फांसी पर लटकाया गया लेकिन फिर रस्सी खुल गई । ऐसा तीन बार हुआ चौथी बार फांसी होने के बाद उनकी मौत की पुष्टि की गई लेकिन अंग्रेजों में उनका इतना खौफ था की मौत की पुष्टि करने के लिए उन्होंने बाबुराव शेडमाके के पार्थिव को खौलाती चुनाभी में डाल दिया । इस घटना का जिक्र महाराष्ट्र की चांदा डिस्ट्रिक गैजेतिर्स में भी है, उसमे लिखा गया है की :-
This rising in Сhаndrарur wаs sроntаneоus. It рrасtiсаlly sрreаd tоwаrds the end оf the greаt Revоlt Thоugh un & suссessful it stаnds оut аs а brilliаnt аttemрt оf the Rаj Gоnd Zаmindаrs tо regаin their freedоm Mаny fоlk tаles аnd sоngs аre сurrently in the Сhаndrарur аreа extоlling the herоiс exрlоits оf the twо Gоnd leаders Bаburао the Zаmindаr оf Mоlаmраlli. Ассоrding tо оne stоry hаd соnsumed саdаver, аnd аs а result оf its extrаоrdinаry роwers, when hаnged, mаnаged tо breаk the nооse fоur times. He wаs finаlly immersed in quiсk lime аnd killed.


वीर बाबुराव की फांसी के बाद उनके साथी व्यंकटराव को भी 2 साल बाद अंग्रेजों ने पकड़ लिया और उन पर मुकदमा चलाकर 30 मई 1860 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई । बाबुराव और व्यंकटराव की जमींदारी के लालच में लक्ष्मीबाई ने बाबुराव को पकड़वाया था उनकी जमींदारी भी सन 1951 में समाप्त कर दी गई और लक्ष्मीबाई ने जो देशद्रोह कर चंद्रपुर जिले को कलंकित किया था उसके लिए उनकी निंदा की गई ।
इस तरह, 25 साल की उम्र में, वीर बाबूराव शोडमाके ने अपना साहस दिखाया और स्वतंत्रता के लिए खुद को बलिदान कर दिया। उनकी साहस और बहादुरी के लिए, भारत सरकार ने उनके जन्मदिन पर उनके नाम पर 12 मार्च, 2007 को भारतीय डाक द्वारा एक स्टाम्प टिकट जारी किया। ऐसे वीर सपूत की याद में कोयतूर समाज कई वर्षों से चंद्रपुर में उनके लिए एक स्मारक बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन सरकार अभी भी इस बारे में चुप है। ऐतिहासिक चांदागढ़ किले की स्थिति खराब है, सरकार इसके बारे में मौन है, केवल पुरातत्व विभाग का बोर्ड लगा देने से किले की हिफाजत नहीं हो सकती है, इसकी मरम्मत भी होनी चाहिए। हर साल वीर बाबूराव शेडीमाके जी का बलिदान दिवस मानाने के लिए चंद्रपुर की जेल में पीपल के पेड़ के पास कोयतूर समाज इकट्ठा होते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। आज गोंडवाना के राजाओं का धरती पर कोई नामोनिशान नहीं है, जो की है वो टूटने की कगार पर है। उसे बचाने के लिए पूरे समाज को एकजुट होकर साहस के साथ इस समस्या को हल करने की जरूरत है, जो हमारे शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।