

आखातीज को गोंडी में सैगोर कहते है और तीज को मूंदे कहते है।
आदिम – नव कोपल, हवा की दिशा परिवर्तन, ऋतु परिवर्तन, दिशा सूल – नवा साल नी जोहार।
बीजा_पंड्डम,
अक्ति_पंड्डम _उत्सव या संजोरी_बिदरी,
ठाकुरदेवन_सेवा_सेवा
तालूरमुत्ते_याया_सेवा_सेवा
जिम्मेदारीन_याया_सेवा_सेवा
प्रचीन आदिम समाज के नववर्ष आखातीज (खत्री बाबा कुदरती वर्ष) का प्रारम्भ आज से होता है। कोयतूर रूढि प्रथा अनुसार (भारतीय संविधान की अनुच्छेद 13 (3) ‘क’) निम्न कार्य प्रारंभ किये जाते हैं। सेवाईया चावल बनाकर पलाश के पत्तो मैं नवौज करके धरती माता को अर्पण किया है। सबुह उठकर 5 या अधिक कचरे के ढेर जलाये जाते हैं। यानी आज से मौसम का पूर्वानुमान लगाने का काम शुरू हो रहा है जिसमे दिशा के आधार पर 5 या अधिक बार सहाडे (फेरे) लगाकर जुताई करकर, बेलों पर चलना, जुताई की गई मिट्टी की दिशा आदि का अध्यन करते है।
आज से खेती का काम करने का शुभ मुहूर्त माना जाता है। खाद खेत में डाल कर मिट्टी को पूनःउपजाऊ बनाना। गोंड महिलाएं घरों को लीप के साफ करती हैं …स्नान करके कुछ पकवान बनाती है …महुवे का सीजन है महुवे का मीठा भी होता था। पुरुष स्नान करके साफ कपड़े पहन के पहले पेन घोंदी ( देव घर ) में फिर नार पेन (ग्राम्य देवता) में …कोरा मटका ताजे पानी से भर कर रखते थे। पकवान बनने पर कांसे की थाली में आरती बना कर सर्व प्रथम …पेन घोंदी के पेनो की गोंगो करेंगे …विदुर (भोग) करेंगे और शुद्ध पानी पेनो को अर्पण करेंगे। फिर पुरुष नार पेनो को विदुर किया ले जाते हैं, फिर सब भोजन करते हैं।
पतझड़ के बाद नव कोमल पतों के साथ कोयतूर नववर्ष की शुरुआत करते हैं। उपभोक्तावाद केन्द्रित समाज के बजाय, प्रथ्वी केन्द्रित वैश्विक पारिस्थितिकी तन्त्रो के जरिये धरती का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सकता है।
आखातीज कोयतूरों का पर्व है। इस पर्व में पशुपलकों व कृषि कार्यो की शुरुआत व किसानों के पुत्रो का एक प्रशिक्षण है
कृषि और पशुपालन की संस्कृति से जुड़े परिवारीक सदस्य न केवल अपने ज्ञान को परिपूर्ण करते, बल्कि इसे अगली पीढ़ी को हस्तांतरित भी करते थे। इस पर्व में किसान सुबह ऊंट, गाय, भैंस और अन्य जानवरों को नहला कर सजाते है।
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कृषि करने का तरीका सिखाना:-
किसान गावं में साफा कपड़े पहनकर बैल, ऊंट या अन्य जानवर के साथ खेत जाते है। ग्रामीण इस हल का गोंगो करते हैं। इसके साथ ही, एक चौकी काटकर हल चलते है। दूसरे व्यक्ति खेत में बीज डालता है और अगली पीढ़ी पूर्ण प्रक्रिया को देखकर सीखाते ।
भाषा और अन्य प्रशिक्षण:-
इस दौरान जानवरों को गोंडी भाषा में बोलते है, जैसे बैठने के लिए ‘झे झे’, पीने के लिए तुबोर-तुबोर, सीधा चलने के लिए पधरो –पधरो आदि।
साथ ही बच्चो को जुताई, हल, बीज, हरि, रास और कृषि में इस्तेमाल की चीजों की जानकारी दी जाती हैं। इसमें साथ ही बड़े-बुजुर्ग धरती दाई का गोंगो करते है।
आंगन में बीजों की ढेरियां:-
खेत में हल चलाने के बाद किसान अपने बेटे को बीज की जानकारी देते है। इस समय गांव में उत्पादित बिज चावल को छोटे-छोटे गमलों में लगाया जाता है, जिसमें बजरी, मूंग, मोठ आदि शामिल होता है। इससे बच्चे सीखते है कि बुवाई में कोन सा बीज उपयोग में लाया जाता हैं। अन्न के सम्मान के लिए अनाज को माथे में लगते है। उसके साथ गुड़ और घी की गोली बनाकर गोंगो करने के लिए सामग्री रखते है।
किसानों के बच्चों खेतो में प्रशिक्षित प्राप्त करने के बाद, घर जाकर स्वादिष्ट पकवान खाते है। इस तरह किसान के बच्चों को एहसास होता है कि वे भी कृषि कर सकते हैं।


गांव की रियाण में होता है स्वागत:-
प्रशिक्षण के बाद अगली पीढ़ी में खेती करने की ललक पैदा हो जाता है, फिर गाव में सभा होती है। इसे बड़ी रियाण करते है। इस दिन गांव के सरे लोग एक जगह एकत्रित होते है।
पहले के जमाने में जब वैज्ञानिक नहीं थे तब मौसम का अनुमान आसपास के वातावरण से पता लगाया जाता था की बारिश होगा या आकाल पड़ेगा। इसे जानने के लिए चार महीने आषाढ, श्रावण, भाद्रपद और आसोज के नाम से चार कच्ची मिट्टी के प्याले रखे जाते है। इनमे पानी भरकर इंतजार करते है। जैसे-जैसे प्याले फूटने लगते है पता चलने लगता है बारिश किस महीने में होगी। नहीं फूटते है तो सूखा माना जाता है।
अन्य तरीके-
पशुओं के बोलना, पक्षियों का बोलना, अनाज की ढेलियों से चींटियों का अनाज ले जाना, हळियों के चलाए हल, हवा चलना, सगुन चिडि़या सहित अन्य कई तरीके है जिससे भी सगुन विचारे जाते है।
!! नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं !!
कोयतूर परंपरा और मान्यता के अनुसार, जब आखातीज का चांद दिखाई देता है। तभी से नए साल की शुरुआत माना जाता है। कोयतूर समाज की संस्कृति, परंपरा, दर्शन और जीवन प्रकृति पर आधारित हैं। कोयतूर समाज प्रकृति में मौसम के बदलाव के अनुसार ही पर्व मनाए जाते हैं।
मौसम के अनुसार वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं, मौसम के अनुसार गीत गाए जाते हैं । इसीलिए कोयतूर समाज की पहचान प्रकृति पूजक व प्रकृति रक्षक के रूप में होती है ।
जब दुनिया में घड़ी का आविष्कार नहीं हुआ तब कोयतूर समाज के लोग चांद और सूर्य की आसमान में स्थिति को देखकर समय का अनुमान लगा लेते थे । जब दुनिया में मौसम चक्र को जानने के लिए कोई उपकरण नहीं बने थे ।


तब से कोयतूर समाज अनुभव से अनुमान लगा लेता है की कब, कहां और कितनी बारिश होगी। जंगलों के फूलों, फलों और पत्तियों को देखकर अंदाजा लगाया जाता था कि इस साल में कौन सी फसल अच्छी रहने वाली है, यानी कोयतूर समाज के लोग प्रकृति का इतना बारीकी से अध्ययन करते थे। कोयतूर समाज प्रकृति से जुड़ाव है इस कारण से वे प्रकृति की भाषा को समझते थे। उन्होंने प्रकृति से अपनी जरूरत की हर चीज ली। वह प्रकृति से उतना ही लेता है जितना उसे जरुरत है। वह हवा, जल, जंगल, पृथ्वी, आकाश, सूर्य और चंद्रमा का गोंगो करते है ।
विकास के नाम पर पर्यावरण और प्रकृति का कितना नुकसान किया जा रहा है। हर कोई अधिक चाहता है और पूरे जंगल को भंडारण की भावना से काटते जा रहा है, नदी सुख रही है, पृथ्वी गर्म हो रही है, आकाश में हर जगह धुआं है। समय पर वर्षा नहीं होती, असमय वर्षा होती है, सर्दी कम होने लगती है, गर्मी अत्यधिक बढ़ जाती है, रोग महामारियों का रूप लेने लगा हैं । अपराधों की संख्या बढ़ रही है। लोग दूसरों को दुश्मन समझने लगे हैं। भाईचारे और आपसी सौहार्द का नाम नहीं बचा, साहचर्य का जीवन नहीं बचा। कोयतूर समाज विकास के नाम पर भ्रमित हो रहा है।
ऐसे समय और स्थिति में अपनी संस्कृति, जीवन मूल्य और दर्शन को संरक्षित करना एक बड़ी चुनौती है। विकासवाद के प्रवर्तकों को यह सोचना होगा कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हुए हम सुरक्षित नहीं रह सकते हैं । आपको अपने जीवन मूल्यों को अपनाने की जरूरत है। झूठ और विनाशकारी अहंकार से बाहर निकलने की जरूरत है। अगर प्रकृति का संतुलन बना रहे तो हम सभी का जीवन हंसी और खुशियों से भरा हुआ होना चाहिए।
कोयतूर समाज के लोग आखातीज के चांद को देखकर ही नए साल की शुरुआत मानते हैं। नए साल में सभी समाज प्रकृति को संरक्षित करने का प्राण ले।
इस दिन परिवार में घर के बुजुर्गों द्वारा चंद्रमा को देखाते है, तो दुनिया में एक अच्छी फसल, सुख और शांति की कामना करते हुए, हाथ में अनाज, पानी और रुपये के सिक्के में रखकर प्रकृति को समर्पित करते हैं।
पुनः नव वर्ष की बहुत बहुत बधाई