

प्रतिनिधित्व का अधिकार अर्थात आरक्षण के सम्बंध में विभिन्न मिथकों का सटीक जवाब-एससी,एसटी,ओबोसी के लिए काम की बातें।।
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प्रश्न १: आरक्षण क्या है?
आरक्षण शब्द एक “मिथ्य” है। इसके लिए भारतीय संविधान में इस्तेमाल किया गया उचित शब्द “प्रतिनिधित्व” है। यह शोषित समुदाय को प्रतिनिधि के रूप में प्रदान किया जाता है। यह किसी को उसकी व्यक्तिगत क्षमता के लिए नहीं दिया जाता है। आरक्षण के लाभार्थियों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने समुदायों को बदले में सहायता प्रदान करें।
प्रश्न २: आरक्षण क्यों?
आरक्षण नीति का उपयोग भेदभाव को खत्म करने और एक प्रतिपूरक अभ्यास के रूप में कार्य करने के लिए एक रणनीति के रूप में किया है। छुआछूत के कारण, समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक रूप से संपत्ति, शिक्षा, वाणिज्य और नागरिक अधिकारों के अधिकार से वंचित थे। ऐतिहासिक इनकार के लिए क्षतिपूर्ति करने और भेदभाव के खिलाफ सुरक्षात्मक उपाय करने के लिए, हमारे पास आरक्षण नीति है।
यह एक रणनीति के रूप में किया जाना चाहिए जो भेदभाव को समाप्त करता है और एक प्रतिपूरक अभ्यास के रूप में कार्य करता है। छुआछूत प्रथा के कारण समाज के एक बड़े वर्ग को संपत्ति, शिक्षा, व्यापार एवं नागरिक अधिकारों से ऐतिहासिक रूप से वंचित रखा गया था। ऐतिहासिक इनकार की भरपाई करने एवं भेदभाव के खिलाफ सुरक्षित उपाय करने के लिए, हमारे पास आरक्षण नीति है।
प्रश्न ३: क्या संविधान के संस्थापकों द्वारा केवल 10 वर्षों के लिए आरक्षण को शामिल किया गया था?
केवल राजनीतिक आरक्षित (विधानसभा, लोकसभा, आदि में आरक्षित सीटें) को 10 साल के लिए आरक्षित किया जाना था और उसके बाद एक नीतिगत समीक्षा की जानी थी। यही वजह है कि हर दस साल के बाद संसद में राजनीतिक आरक्षण को बढ़ाती है।
आरक्षण के लिए 10 साल की सीमा शिक्षा और रोजगार के आरक्षण पर लागू नहीं होती है। शैक्षिक संस्थानों और रोजगार में आरक्षण कभी भी विस्तारित नहीं होता जैसा कि राजनीतिक आरक्षण में दिया जाता है।
प्रश्न ४: जाति के आधार पर आरक्षण क्यों देंना चाहिए?
पहले यह जाने कि आरक्षण की आवश्यकता क्यों महसूस हुई है। भारत में शोषित जातियाँ जिस प्रकार का शोषण सहती आयीं हैं/ सह रहीं हैं, उसका कारण धार्मिक स्वीकृति पर आधारित जाति प्रणाली का होना है, जिसका व्यापक परिमाण ऐतिहासिक पराधीनता है । इसलिए यदि जाति व्यवस्था ही वंचित पिछड़े-बहुजनों की सभी अन्याय, असामर्थ्यताओं एवं असमानताओं का प्रमुख कारण था, तो इन सभी असामर्थ्यताओं को दूर करने के लिए केवल जाति के आधार पर ही तैयार किया जाना चाहिए।
प्रश्न ५: आरक्षण आर्थिक कसौटी पर आधार क्यों नहीं?
आरक्षण निम्नलिखित कारणों से किसी भी तरह से आर्थिक स्थितियों पर आधारित नहीं होना चाहिए:-
क) वंचित तबकों-बहुजनों में व्याप्त गरीबी की उत्पत्ति जाति व्यवस्था पर आधारित सामाजिक-धार्मिक पृथक्करनों के कारणवश है। अतः गरीबी एक परिणाम है जिसका कारण जाति व्यवस्था है। इसीलिए समाधान “कारण” का होना चाहिए न की “परिणाम” का।
ख) किसी की वित्तीय स्थिति बदल सकती है। कम आय का मतलब गरीबी हो सकता है। लेकिन भारत में पैसे की क्रय शक्ति भी जाति पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, एक दलित कई स्थानों पर एक कप चाय नहीं खरीद सकता है।
ग) व्यक्ति की आर्थिक स्थिति साबित करने में राज्य के तंत्र की कई व्यावहारिक कठिनाइयां हैं। इससे कमज़ोर को समस्या हो सकती है।
घ) जाति-वर्चस्व वाले भारत में, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार व्याप्त है, जहाँ आप कृत्रिम “जाति प्रमाण-पत्र” की भी खरीदारी कर सकते हैं, कृत्रिम “आय प्रमाण-पत्र” खरीदना कितना आसान होगा? इसलिए, आय आधारित आरक्षण पूरी तरह से अव्यावहारिक है। यह तर्क देने में कोई लाभ नहीं है कि जब दोनों प्रमाण पत्र खरीदे जा सकते हैं, तो केवल जाति ही आरक्षित का आधार क्यों बन सकती है? निश्चित रूप से, क्योंकि कृत्रिम आय प्रमाण पत्र की तुलना में कृत्रिम जाति प्रमाण पत्र खरीदना थोड़ा मुश्किल है।
ई) आरक्षण अपने आप में एक अंत नहीं है, यह एक अंत का साधन है। इसका मुख्य उद्देश्य समाज के सभी क्षेत्रों में “सामाजिक रूप से बहिष्कृत” मानव दुनिया की सक्रिय भागीदारी को साझा करना है। यह सभी बीमारियों का सर्वर नहीं है, न ही यह स्थायी है। यह तब तक के लिए एक अस्थायी उपाय होगा जब तक कि अखबारों में शादी के कॉलम में जाति का उल्लेख होता रहेगा।
प्रश्न ६: क्या यहाँ क्रीमी परत मापदंड होना चाहिए या नहीं?
आरक्षण विरोधियों द्वारा क्रीमी लेयर की मांग करना आरक्षण की पूरी प्रभावशीलता को विफल करने की एक चाल है । अभी भी आईआईटी में एससी/एसटी के लिए आरक्षित सभी सीटों में से 25–40% सीटें खाली रहती हैं क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि आईआईटी को उपयुक्त उम्मीदवार ही नहीं मिलते हैं। जरा सोचिए, तब क्या होगा जब क्रीमी लेयर का मापदंड लागू होगा, एससी/एसटी मध्यम वर्ग, निचला मध्यम वर्ग के वे लोग जो सभ्य शिक्षा लेने की स्थिति में हैं, उन्हें आरक्षण लाभ लेने से वंचित कर दिया जाएगा। क्या अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के गरीब छात्र उन `विशेषाधिकार प्राप्त छात्रों`से प्रतिस्पर्धा कर पाएंगे जो कि रमैय्या से प्रशिक्षण प्राप्त किए हुए है या फिर कोटा के विभिन्न आईआईटी-जेईई प्रशिक्षण केंद्रों से है?
बिलकुल नही. इसका परिणाम यह होगा कि अनुसूचित जाति / जनजाति के लिए आरक्षित IIT की 100% सीटें खाली रह जाएंगी।
प्रश्न ७: आरक्षण कब तक जारी रखना चाहिए?
उत्तरदाताओं के पास इस प्रश्न का उत्तर है। यह निष्ठा और प्रभावशीलता पर निर्भर करता है जिसके साथ कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका में “विशेषाधिकार प्राप्त जातियों” का गठन करने वाले नीति निर्माता आरक्षित नीति को लागू करते हैं।
क्या यह सिर्फ उन “विशेषाधिकार प्राप्त जातियों” के हिस्से में है, जो पिछले 5000 वर्षों से अघोषित एवं अनन्य आरक्षण का लाभ उठाते आ रहे है और आज 21वीं सदी में भी सभी धार्मिक संस्थानों एवं पूजा स्थलों का संपूर्ण उपभोग कर रहे हैं। वे अब आरक्षण नीति की समयसीमा पूछ रहें हैं?
आप यह नहीं पूछते कि धार्मिक संस्थानों और पूजा स्थलों में किसी विशेष समुदाय के लिए विशेष रिजर्व कब तक जारी रहेगा?
जो लोग 5000 से अधिक वर्षों के लिए अमानवीय अधीनता से अक्षम हो गए हैं, उन्हें दूर करने के लिए पर्याप्त समय की आवश्यकता होगी। 50 साल से अधिक सकारात्मक कार्रवाई, बनाम निर्वाह के लिए 5,000 वर्षों से अधिक कुछ भी नहीं है।
प्रश्न ८: क्या समाज विभाजीत हो जायेगा जातिगत आधारित आरक्षण से?
ऐसी आशंका है कि आरक्षण से समाज में विभाजन बढ़ेगा। ये डर पूरी तरह से तर्कहीन हैं। समाज पहले से ही विभिन्न जातियों में विभाजित है। इसके विपरीत, आरक्षण जाति व्यवस्था को खत्म करने में मदद करेगा। एससी / एसटी और ओबीसी में लगभग पांच हजार जातियां हैं। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की तीन व्यापक श्रेणियों के तहत आने वाली 5000 अलग-अलग जातियों का एक समूह बनाकर इनके बीच के मतभेद को कम किया जा सकता है। जातियों का अंत करने का यह सबसे अच्छा तरीका है।
इसलिए उस बयानबाजी को करने के बजाय उस जातियों को खत्म करने के ईमानदार और वास्तविक प्रयास होने चाहिए। क्या इन लोगों ने इस दिशा में कोई प्रयास किया है? ज्यादातर मामलों में, जवाब नहीं है। आरक्षण विरोधी बयानबाजी करने वाले लोग उन सभी विशेषाधिकारों का लाभ उठा रहे हैं जो भारतीय जाति व्यवस्था “विशेषाधिकार प्राप्त जाति” को प्रदान करती है। जब तक वे जाति व्यवस्था के विशेषाधिकारों का लाभ उठाते रहेंगे, तब तक वे इससे बच नहीं रहे हैं। लेकिन जब सामाजिक समानता हासिल करने के लिए जातियों के आधार पर प्रतिनिधित्व करने की बात आती है, तो ये लोग शोर मचाना शुरू कर देते हैं। ये “विशेषाधिकार प्राप्त” लोगों द्वारा किए गए उच्चतम स्तर के दोहरे मानक हैं।
प्रश्न ९: क्या आरक्षण योग्यता को प्रभावित नहीं करेगा?
जब यह योग्यता की बात आती है, तो इसे बहुत ही संकीर्ण अर्थों में परिभाषित किया गया है। इसका अर्थ आईआईटी कानपुर प्रोफेसर राहुल बर्मन द्वारा लिखे गए लेख के कुछ निम्नलिखित अंश में हैं:
“ पिछले 50 वर्षों से दक्षिण भारत के चार राज्यों में 60% से अधिक एवं महाराष्ट्र में लगभग 40% आरक्षण मौजूद है । वहीं दूसरी ओर, उत्तर भारतीय राज्यों में 15% विशेषाधिकार प्राप्त जातियां ही शैक्षिक संस्थानों और रोजगार में 77% सीटों का लाभ ले रही हैं (यह मानते हुए कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए 23 % आरक्षण सीटें पूरी तरह से भरी हुई हैं, जो कि असल में नहीं हैं)। विश्व बैंक के एक अध्ययन में पाया गया है कि भारत के चार दक्षिणी राज्य अपने मानव विकास सूचकांक के मामले में भारत के उत्तरी राज्यों से कहीं आगे हैं। गरीबी उन्मूलन योजनाओं में सभी दक्षिणी राज्य और महाराष्ट्र औद्योगिक विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्र में बहुत आगे हैं, भारत के उत्तरी राज्यों की तुलना में। इससे पता चलता है कि आरक्षण ने भारत के दक्षिणी राज्यों को कई मोर्चों पर प्रगति करने में मदद की है। जबकि भारत के उत्तरी राज्यों में विकास की कमी के लिए पर्याप्त भंडार की कमी जिम्मेदार है।
प्रश्न १०: अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए मौजूदा आरक्षण प्रभावी रहा है या नहीं ?
सार्वजनिक क्षेत्र में आरक्षित नीति से बहुत से लोग लाभान्वित हुए हैं। केंद्र सरकार में 14 लाख कर्मचारी हैं। तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में अनुसूचित जातियों का अनुपात 16% के कोटे से काफी ऊपर है और पहली और दूसरी श्रेणी में यह अनुपात 8-12% के आसपास है । इसलिए आज हम मध्यम एवं निम्न मध्यम वर्ग में हम जिस वंचित-पिछड़े समुदाय को देखते हैं, वह आरक्षण के कारण है ।
अनुवाद: Pariah Street का अज्ञातकृत दोस्त
संकलन-विनोद कुमार